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सुंदेशा मुथा जैन भवन कोन्डितौप में जैनाचार्य श्रीमद् विजय रत्नसेनसुरीश्वरजी म.सा ने कहा कि:- संसार में रहते हुए जीवात्मा को पुर्ण सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती । इसलिए तीर्थंकर परमात्मा की धर्म देशना हमें संसार से विरक्त होने और मुक्ति के अनुरागी बनने के लिए प्रेरित करती है ।
चार गति रुप इस संसार में जीव मात्र की सबसे बड़ी और महत्त्वपूर्ण इच्छा एक ही है ” जीवन जीने की ” । सभी प्राणी जीवन जिना चाहते हैं, मरना किसी को पसंद नहीं हैं । अपने प्राणों को बचाने के लिए अन्य सभी मनपसंद पदार्थों का त्याग करने तैयार हो जाता हैं । कदाचित् धर्म के उपदेश से व्यक्ति त्याग और तपश्चर्या का आचरण न करे , परंतु ड़ायबिटिज आदि घातक रोगों का पता चलने पर व्यक्ति मिठाई , घी आदि सभी का त्याग करने के लिए तैयार हो जाता हैं ।
मरण का नाम सुनते ही व्यक्ति भयभीत हो जाता हैं । उसे न तो भोजन में आनन्द आता है, न व्यापार में । परंतु इस संसार में जीवन शाश्वत नहीं हैं ।आयुष्य पूरा होते ही जीवात्मा को शरीर का त्याग करना ही पड़ता हैं । जैसे फुटबाल के मैदान में सभी खिलाडी हमेशा फुटबॉल को लातों से मारकर घुमाते रहते हैं, वैसे ही इस विश्व के मैदान में हमारी आत्मा को भी कर्म की लाते लगती हैं और चार गतियों में भ्रमण करना पडता है ।
जीवात्मा शाश्वत जीवन के साथ हमेशा सुख चाहती हैं । जीवन में सुख का अंश भी न हो और दुःख ही दुःख हो , तो जीवन बोझ रुप लगता हैं । अतः जीवन में सुख भी जरुरी हैं । संसार में सुख की चाहना में व्यक्ति अथाक परिश्रम करता है, परंतु सुख रहित इस संसार में जीवात्मा को सुख प्राप्त नहीँ होता । सदा सुखमय जीवन एक मात्र मोक्ष में हैं, अतः संसार के विनश्वर सुखों को छोड शाश्वत सुख पाने के लिए मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए।
अनंत काल से चार गति रुप संसार में परिभ्रमण कर रही आत्मा के लिए मनुष्य जन्म की प्राप्ति अत्यंत दुर्लभ हैं ।देव गति में जन्म आसान हैं परंतु मनुष्य जन्म अत्यंत दुर्लभ हैं ।
धर्म की आराधना करने के लिए मनुष्य जन्म के साथ पांच इन्द्रियो की पूर्णता , निरोगी देह , दीर्घ आयुष्य आदि सामग्री खुब जरुरी हैं । पांच इंद्रिय के दुरुपयोग से आत्मा पाप कर्म का बंध कर सकती हैं, तो धर्म की आराधना के लिए भी पांच इन्द्रियों की पूर्णता जरुरी हैं ।