श्वेताम्बर जैन समाज के पर्यूषण पर्व की धूम, उत्साह के साथ हो रही है धर्म आराधना
Sagevaani.com @शिवपुरी। जीव दया, सुपात्र दान, साधार्मिक भक्ति और संसार के सभी प्राणियों से अपने ज्ञात-अज्ञात अपराधों के लिए क्षमा याचना कर आप अपने पर्यूषण पर्व को सार्थक बन सकते हैं। पर्यूषण पर्व के दौरान विभाव से स्वभाव में आने का प्रयास करें और अपने मन की मलीनता, कटुता और वैमनस्यता को धोकर एक नये जीवन की शुरुआत करें। उक्त उद्गार प्रसिद्ध जैन साध्वी नूतन प्रभाश्री जी ने आराधना भवन में पर्यूषण पर्व के दूसरे दिन आयोजित एक विशाल धर्मसभा में व्यक्त किए। साध्वी रमणीक कुंवर जी महाराज ने अपने उद्बोधन में कहा कि पर्यूषण पर्व का संदेश साफ है खुद भी जिये और दूसरों को भी जीने दें। भगवान महावीर का संदेश भी यही है जियो और जीने दो। जैन साध्वियों के प्रवचन के बीच-बीच में साध्वी जयश्री जी के सामयिक और प्रासंगिक भजनों ने प्रवचनों के अर्थ की गुणवत्ता को बढ़ाने और समझाने का कार्य किया। साध्वी पूनमश्री जी ने अंतगढ़ सूत्र का वाचन कर गुरुजनों के सम्मान की महत्ता पर प्रकाश डाला।
साध्वी नूतन प्रभाश्री जी ने बताया कि आध्यात्मिक जगत में धन, पद और प्रतिष्ठा के कोई मायने नहीं हैं। मूल्य हैं तो सिर्फ चारित्रिक श्रेष्ठता का। उन्होंने कहा कि धन और पद में कोई बुराई नहीं है, लेकिन होता यह है कि धन बढऩे के साथ अहंकार बढ़ जाता है और यह अहंकार दिमाग पर छा जाता है, लेकिन धन, पद और प्रतिष्ठा प्राप्त करने से आपको किसी के अपमान का अधिकार नहीं मिल जाता है। उन्होंने बताया कि आध्यात्मिक जगत में व्यक्ति को दो बुराईयों से अपने आपको दूर रखना चाहिए। एक तो दृष्टि में दोष और दूसरे मन में खोट।
उन्होंने कहा कि जिन्हें दूसरे में बुराई देखने की आदत होती है वह अच्छाई में भी बुराई देख लेते हैं। इसमें किसी का नहीं उनकी दृष्टि का दोष है। जबकि व्यक्ति को अपनी बुराई और दूसरे की अच्छाई देखना चाहिए। उन्होंने कहा कि आध्यात्मिक जीवन में आप प्रवेश करना चाहते हैं तो मन में खोट को भी निकालना होगा। उन्होंने वाणी में दरिद्रता और व्यवहार में अशुद्धता को सामाजिक जीवन का दोष बताया। उन्होंने कहा कि हमें अपना सामाजिक जीवन सुखमय बनाना है तो ऐसी वाणी बोलिए जो दूसरे को अच्छी लगे और अपने व्यवहार में ओछेपन को तिलांजलि दीजिए। पारिवारिक जीवन में अविश्वास और व्यक्तिगत जीवन में उन्होंने चिंता और भय को दोष की संज्ञा दी।
दान छपाकर नहीं, बल्कि छुपाकर किया जाना चाहिए
साध्वी नूतन प्रभाश्री जी ने दान को मोक्ष का द्वार बताते हुए कहा कि दान गुप्त रूप से दिया जाना चाहिए। दायां हाथ यदि दान दे रहा है तो उसकी खबर बायें को भी नहीं लगना चाहिए। दान शुद्ध भावों से दिया जाना चाहिए। भावों की श्रेष्ठता से दानदाता तीर्थंकर पद का अधिकारी हो जाता है।
उन्होंने कहा कि आज कल दान अपनी प्रतिष्ठा दिखाने के लिए किया जाता है। दान यदि किया जाता है तो उसका अखबार में विज्ञापन और समाचार छपवाया जाता है, लेकिन आध्यात्मिक जगत में ऐसे दान का कोई मूल्य नहीं है। दान छपाकर नहीं, बल्कि छुपाकर किया जाना चाहिए। उन्होंने अपनी गुरुणी मैया साध्वी रमणीक कुंवर जी का उदाहरण देते हुए कहा कि जब वह गोचरी (आहार) के लिए जाते थे तो देखते थे कि किस साधार्मिक भाई की आर्थिक स्थिति खराब है और फिर वह आप सब लोगों के सहयोग और दान से उस भाई की आर्थिक दशा सुधारने का प्रयास करते थे। ऐसे ही दान का सही मायनों में कोई मूल्य है।
राजा कुमार पाल ने पेश किया अहिंसा का उत्कृष्ट उदाहरण
अंतगढ़ सूत्र में राजा कुमार पाल की कथा सुनाते हुए साध्वी पूनमश्री जी ने कहा कि उन्होंने अपने राज में अमारी प्रवर्तन का संदेश दिया था। उनके राज्य में हिंसा पूरी तरह प्रतिबंधित थी। यहां तक कि मार शब्द का उपयोग करना भी अपराध माना गया था। राजा कुमार पाल के 11 लाख घोड़े थे और उन सभी घोड़ों को छना हुआ पानी पिलाया जाता था। घोड़े पर बैठने से पहले उसकी पूजा की जाती थी। उनके राज्य में जीव दया का पालन होता था और साधार्मिक वात्सल्य की उत्कृष्ट परम्परा थी।