क्रमांक – 9
. *तत्त्व – दर्शन*
*🔹 जीव-अजीव की दृष्टि से नवतत्त्व*
*👉 जैसा कि पूर्व में ही यह स्पष्ट किया जा चुका है कि मूलतत्त्व दो ही हैं – जीव और अजीव। इन्हीं के संयोग एवं वियोग से अन्य तत्त्वों को समझा जाता है। अतः अन्य सात तत्त्व इन्ही दो में ही समाहित हैं। बन्ध पुद्गल की अवस्था विशेष है, अतः बन्ध अजीव में समाहित होता है। इसी तरह पुण्य, पाप, बंध भी अजीव के पर्याय हैं अतः अजीव में समाहित हो जाते हैं। संवर, निर्जरा एवं मोक्ष ये जीव के पर्याय हैं अतः जीव में समाहित हो जाते हैं। आस्रव आत्मा की शुभ-अशुभ परिणति है, अतः जीव है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि अजीव, पुण्य, पाप, बन्ध – ये चार तत्त्व अजीव हैं। जीव, आस्रव संवर, निर्जरा एवं मोक्ष – ये पांच तत्त्व जीव हैं।*
*🔹तत्त्व ज्ञेय, हेय और उपादेय रूप में*
*👉 उपर्युक्त नवतत्व ज्ञेय, हेय और उपादेय के रूप में भी विभक्त किये जा सकते हैं। ज्ञेय से तात्पर्य है जिसे जाना जाये अर्थात् जो जानने योग्य है, हेय से तात्पर्य है जो उपेक्षा के योग्य है, तिरस्कार के योग्य है अर्थात् जो छोड़ने के योग्य है और उपादेय से तात्पर्य है जो आत्म-हित के लिए ग्रहण करने योग्य है। अध्यात्म के पथ पर अग्रसर होने वाले हर व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि वह जीव और अजीव दोनों को जाने। इन दोनों को जाने विना वह मुक्ति की दिशा में आगे नहीं बढ़ सकता। जीव की अशुभ प्रवृत्ति हेय है। शुभ प्रवृत्ति उपादेय है। पुण्य, पाप, आस्रव और बन्ध ये चारों हेय हैं। हर साधक के लिए मोक्ष की उपयोगिता है अतः मोक्ष उसके लिए उपादेय है और मोक्ष के कारण हैं संवर और निर्जरा। इस प्रकार आत्मोन्नति चाहने वाले हर व्यक्ति के लिए संवर, निर्जरा एवं मोक्ष उपादेय हैं।*
*🔹 मूर्त और अमूर्त*
*अब प्रश्न यह उठता है कि इन नव तत्त्वों में कितने तत्त्व मूर्त्त (रूपी) हैं और कितने अमूर्त (अरूपी), मूर्त से तात्पर्य है जिसमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श हो। जिसमें ये गुण नहीं हैं वह अमूर्त अर्थात् अरूपी है। इन नवतत्त्वों में जीव अमूर्त है क्योंकि उसमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श नहीं है। आश्रव, संवर, निर्जरा एवं मोक्ष भी अमूर्त हैं। अजीव के पांच भेद हैं- धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल। इनमें धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चारों अमूर्त या अरूपी हैं। पुद्गल मूर्त है। बन्ध, पुण्य और पाप भी पौदगलिक होने से मूर्त्त (रूपी) हैं।*
*क्रमशः ………..*
*✒️ लिखने में कोई गलती हुई हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं।*
विकास जैन।