नार्थ टाउन में चातुर्मासार्थ विराजित गुरुदेव जयतिलक मुनिजी ने प्रवचन में फरमाया कि आत्मबधुओ :- धर्म जीवन में अपनाने योग्य है धर्म से ही जीवन सुन्दर व पवित्र बनता है धर्म से मानसिक, वाचिक व कायिक शुद्धि की उपलब्धि होती है। धर्म स्वयं को व अन्य जीवों को भी दुख से छुटकारा प्रदान करता है जो धर्म स्वयं को व अन्य को भी सुख प्रदान करें उसे बिना शकों के अपनाना चाहिए। व्यक्ति अज्ञानता के कारण मोह के तीव्र उदय के कारण अधर्म को अपना कर स्वयं भी दुखी होता है और “दूसरो को भी दुख देता है। जिनेश्वर प्ररुषित धर्म को अपनाने से व्यक्ति कठोर कर्म व निकाचित कर्म से भी छुटकारा पा सकता है। सुखे-समाधे व्रत पालन में दृढ़ता होनी चाहिए।
अन्तराय कर्म के उदय में आने से व्रत पालन नही होगा ऐसी कल्पना भी नहीं करनी चाहिए। ऐसी कल्पना करने वाला व्रत प्रत्याख्यान धारण नहीं करते। अन्तिम सांस तक धर्म पालन करूँ ऐसी भावना भा कर दृढ़ता से व्रत प्रत्याख्यान ले कर उनका पालन करो। यदि जहाज में (यानि महाव्रत धारण न कर सको)) न बैठ सको तो नाव में बैठो यानि अनुव्रत धारण करो दोनो ही भव सागर को पार कराने वाले है। दृढता के साथ नियम पालन करो’ इसलिए ज्ञानी जन कहते है डरने की आवश्यकता नही है। गुरुदेव ने तीसरे व्रत के बारे में जानकारी दे कर सबको व्रत धारण कर अनावश्यक का त्याग करने की प्रेरणा दी।