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सुंदेशा मुथा जैन भवन कोंडितोप में जैनाचार्य श्रीमद् विजय रत्नसेनसुरीश्वरजी म.सा ने कहा कि:- मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति है । मोक्ष मार्ग की साधना के अनुरुप जीवन जीया जाय तो व्यक्ति इस वर्तमान जीवन में भी परम सुख का अनुभव कर सकता है।
परम्परा से अपनी आत्मा का कल्याण भी कर सकता है। जब से मानव अपने मोक्ष लक्ष्य को भुला है, तब से उसके जीवन में अनेक विध समस्याएँ खड़ी हूई है। स्वाद की गुलामी ने मानव जीवन में अनेक रोग पैदा किये है।
भोजन व स्वास्थ्य के श्रेष्ठ प्राकृतिक नियमों का पालन किया जाय तो व्यक्ति स्वयं अपना चिकित्सक बन सकता है, और अपना शरीर एवं आत्मा के आरोग्य की रक्षा कर सकता है। अनुकूल सामग्री की प्राप्ति में राग करने से और प्रतिकूल सामग्री की प्राप्ति मे द्वेष करने से नवीन कर्म का बंध होता है, अतः मुक्ति के अभिलाषी साधक व्यक्ति को अनुकूल भोजन सामग्री में राग नहीं करना चाहिए और प्रतिकूल भोजन सामग्री में द्वेष नही करना चाहिए ।
वास्तव में जीवन जीने के लिए भोजन है, भोजन के लिए जीवन नहीं है। स्वाद की गुलामी में आज मानवी पाचनतंत्र की शक्ति को सोचे बिना अधिकतम भोजन स्वाद के लिए ही करता है। जैसे ही भोजन के लिए ही जीवन न जीता हो। स्वादिष्ट भोजन करते समय भोजन की प्रशंसा करने से रसनेन्द्रिय उत्तेजित होती है। भोजन करते समय राग करने से मोहनीय कर्म का बंध होता है। जो आत्मा को संसार मे अनंत काल तक भटकता है।
मानव को शैतान बनाने वाले माँसाहार और शराब पान मानवीय मन को भ्रष्ट कर देता है , अतः वे तो अवश्य त्याज्य है। पशु को तो जो कुछ भी मिलता है, उसे खा लेता है, जबकि मनुष्य एक सभ्य प्राणी है जिसे भोजन के विषय में विवेक खुब जरुरी है। जो कुछ भी पैदा हुआ है वह सब कुछ खाने योग्य नहीं हैं। कई पदार्थ भक्ष्य हैं कई अभक्ष्य जिसका विवेक खुब जरुरी है। जिस भोजन में अनंत जीवों की हिंसा होती हो, ऐसे कंदमूल का भोजन नहीं करना चाहिए ।
मानसिक दृष्टि से अहितकर तामसी आहार जैसे माँसाहार मदिरा पान का विशेष रुप से त्याग करना चाहिए । शरीर और आत्मा के आरोग्य को नुकसान न हो इसलिए इन नियमों का पालन करना चाहिए, जैसे वमन करके भोजन न करे , चिंतातुर होकर भी भोजन न करे खड़े -खड़े या अस्थिर आसन में भोजन ना करे । रात्रि में भोजन का सर्वथा त्याग करे।
रात्रि में देर तक खाने वाले देरी से सोते है। अतः सुबह देरी से ही उठते है। सूर्योदय के समय सोते रहने वाले का बल, बुद्धि और आयुष्य में हानि होती है। अति उष्ण , अति शीत भोजन हमारे पाचन यंत्र को नुकसान करते है। अतिशय खारा, अतिशय खट्टा, अतिशय मीठा भोजन भी हमारे शरीर के पीत्त वायु और कफ का असन्तुलन करता है जो रोग को पैदा करता है।
आहार के साथ मनुष्य को पानी की भी अपेक्षा रहती है। पानी अपनी प्यास को शांत करता है , तो साथ मे भोजन को भी पचाने में भी सहायक बनता है। कच्चा पानी अपकाय कहलाता है।
कच्चा पानी स्वयं जीव स्वरुप है। पानी की एक बुंद में असंख्य जीव होते है, उनका जन्म मरण सतत चलता ही रहता है, उन जीवों की रक्षा के लिए एवं मन कृरता से बचाने उसे उबालना चाहिए, जिससे जीवो के जन्म मरण की परम्परा न चले। अतः अचित उबला पानी का ही उपयोग करना चाहिए ।