चेन्नई. किलपॉक में विराजित आचार्य तीर्थभद्र सूरीश्वर ने कहा जो उपदेश सुनते हैं उसका आत्म निरीक्षण करना चाहिए, उससे आत्मा की भूमिका का पता चलेगा। श्रावक को ग्यारह वार्षिक कर्तव्यों को आचरण में लाना चाहिए।
ये कर्तव्य संघपूजा, साधर्मिक भक्ति, यात्रात्रिक, स्नात्र पूजन, देवद्रव्य की वृद्धि, महापूजा, रात्रिजागरण, श्रुत ज्ञान की भक्ति, उज्जमणा, तीर्थ प्रभावना और आलोचना है। इनमें आठ में प्रभु भक्ति समाहित है। प्रभु भक्ति का पर्याय है आत्म शुद्धि का शास्त्र।
उन्होंने कहा कर्तव्यों का केवल श्रवण भर करने से काम नहीं चलेगा बल्कि आत्म शुद्धि के लिए आत्मनिरीक्षण करना आवश्यक है। हमें वर्ष में एक बार घरेलू या संघ के मंगल कार्य पर अष्टान्हिका महोत्सव करना चाहिए। इसमें प्रभु की पूजा, अंगरचना, भक्ति, स्वामीवत्सल्य शामिल है।
उन्होंने कहा आज हम अपने कर्तव्यों से विमुख होते जा रहे हैं। कोई भी धार्मिक अनुष्ठान विधि, द्रव्य और भाव की शुद्धि के साथ किया जाना चाहिए और इन सबमें जयणा का भाव रखना चाहिए। जब पुण्य टूटता है तो तकलीफें बढ़ती हैं, जीवन में इन पुण्यों को हमें बढ़ाना है। देवद्रव्य कामधेनु की तरह है।
उन्होंने कहा जीवन में अनादि काल से बहुत विराधना, पाप होते है, उनकी शुद्धि करने के लिए आलोचना, प्रायश्चित करनी चाहिए, नहीं तो वे अगले कई भवों में साथ चलता है।
जो पाप करे वह पापी नहीं है लेकिन जो पाप करे और आलोचना न करे वह पापी है। अपनी भूल को स्वीकार करने वाला धर्मात्मा है। पौषध का तात्पर्य है जो आत्मा के गुणों को पुष्ट करे। पर्व के दिनों में पौषध व्रत जरूर करना चाहिए।