चेन्नई. आप जरा अपने शरीर को गौर से देखें- जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, वैसे-वैसे कानों से सुनना, आंखों से देखना कम होता जा रहा है। मुख से दांत भी गिर रहे हैं। काले-घुंघराले बाल या तो उड़ गए हैं या फिर सफेद हो रहे हैं। इंसान बूढ़ा हो जाता है पर उसकी तृष्णा सदा जवान बनी रहती है। जिस कारण वह जो पास में है, उसका सुख भी नहीं उठा सकता। डॉ. वरुण मुनि ने जैन भवन, साहुकारपेट में आयोजित प्रवचन सभा में यह विचार व्यक्त किए। सुनील खेतपालिया की ओर से श्री सुधर्मा दरबार में उपस्थित श्रद्धालु भाई-बहनों को संबोधित करते हुए गुरुदेव ने कहा पैसे की दौड़ में व्यक्ति जीवन के अंत में अपने शरीर से हार जाता है। हाथों में कंपन होने लगता है, कमर झुक जाती है। पहले जवानी के जोश में छलांग लगाकर जो 3-3 सीढियां एक साथ चढ़ जाता था, अब उसे एक सीढ़ी चढऩा भी पहाड़ समान लगता है।
शरीर की ऐसी अवस्था होने भी पर है मन सदा तृष्णा के मकड़ जाल में उलझा रहता है। आचार्य शंकर कहते हैं -दिन जा रहा है, रात आ – रही है। गर्मी जा रही है, सर्दी आ रही है। एक एक करके ऋतुएं बदल रही हैं। काल के इस चक्र में जीवन का चक्र पूरा होता जा रहा है मगर फिर भी इंसान की आशा – तृष्णा अधूरी ही है। संसार में अमीर भी दु:खी है और गरीब भी। गरीब इसलिए दुखी है कि पेट नहीं भरता और अमीर इसलिए दुखी है कि पेटी नहीं भरती। गुरु भगवंत फरमाते हैं- पेट तो भर सकता है पर ये तृष्णा रूपी पेटी ऐसी है जो चक्रवर्ती के षट्खण्ड जैसे विशाल राज्य को पाकर भी नहीं भरती।
रुपेश मुनि ने अपने प्रवचन में कहा मानव जीवन का पहला कर्तव्य है जिनेन्द्र पूजा यानि वीतराग भगवान की भक्ति करना। भक्ति दो प्रकार की होती है- द्रव्य भक्ति और भाव भक्ति। इसे आप बाह्य पूजा और आभ्यंतर पूजा भी कह सकते हैं। जिस साधना रूपी मार्ग पर चल कर श्री वर्धमान राजकुमार ‘प्रभु महावीर’ बने, हम भी यथाशक्ति उस मार्ग पर बढ़ें, यही भगवान की असली पूजा है।