चेन्नई. जो जीवन को सही अर्थो में जीते हैं, उनकी मृत्यु भी महोत्सव बन जाती है। जिसे जीवन जीने की कला ही नहीं आई, वे मृत्यु के समय भयभीत होते हैं, घबराते हैं। ज्ञानी और अज्ञानी में संत और संसारी में यही अंतर है कि ज्ञानी पुरुष मुस्कुराते हुए मृत्यु का स्वागत करता है और दूसरी तरफ आज्ञानी व्यक्ति मौत आने पर रोता व चिल्लाता है। यह विचार ओजस्वी प्रवचनकार डा. वरुण मुनि ने जैन भवन, साहुकारपेट में आयोजित प्रवचन सभा को संबोधित करते हुए व्यक्त किए। उन्होंने कहा गीता के शब्दों में मृत्यु का अर्थ है- शरीर रूपी वस्त्र का परिवर्तन होना। बाह्य दुनियां में यदि किसी को नए वस्त्र दिए जाएं तो वह प्रसन्न होता है। परंतु मनुष्य है कि मौत से इतना अधिक डरता है, उसका नाम लेना भी पसंद नहीं।
शरीर रूपी वस्त्र जब जीर्ण-शीर्ण हो जाता है तो उसे अपने कर्मों के अनुसार नया शरीर मिलता है। मृत्यु एक शरीर को छोड़ कर दूसरा शरीर धारण करने की मात्र एक घटना है। परंतु सच तो यह है कि- व्यक्ति का अपने शरीर, घर-परिवार, धन दौलत, मकान-दुकान से जो मोह जुड़ा है, वह आसक्ति (अटैचमेंट) ही उसे दु:खी एवं परेशान करती है। उसे जब लगता है कि – यह सब छोडक़र मुझे जाना होगा। इस बात से वह विचलित अधिक होता है।
जैन परंपरा में जब किसी व्यक्ति का अंतिम समय निकट आता है तो उसे संथारा करवाए जाने की एक सुंदर परंपरा है। उस समय ऐसे व्यक्ति को धर्मगुरु अथ वा परिवार के सदस्य यही समझाते हैं कि- तन तो छूटने ही वाला है आप मन से भी आसक्ति के ये बंधन तोड़ दो। संसार से, परिवार से एवं व्यापार से सारा ध्यान हटाकर आप केवल प्रभु से अपना पूरा ध्यान जोड़ लो। हमारे यहां बड़ी प्रसिद्ध कहावत है- अंत मति सो गति।
अंतिम समय यदि प्रभु में मति होगी तो प्रभु की गति प्राप्त होगी और संसार बुद्धि बनी रही तो संसार वृद्धि यानि, जन्म-मरण की श्रृंखला बढ़ती जाएगी। राज कुमार वर्द्धमान की जीवन गाथा हमें यह प्रेरणा प्रदान करती है। उन्होंने पिता सिद्धार्थ व माता त्रिश्ला महारानी को अंतिम आराधना करवाई, जिसके फल स्वरूप उन्होंने सद्गति पाई। प्रवचन सभा में जैन कॉन्फ्रेंस के राष्ट्रीय अध्यक्ष आनंद छल्लाणी, टी. नगर संघ के अध्यक्ष उत्तमचंद गोठी एवं नाशिक (महाराष्ट्र) से बड़ी संख्या में श्रद्धालु जन पधारे।