नार्थ टाउन में गुरुदेव जयतिलक मुनिजी ने प्रवचन में फरमाया कि जीवन का कोई भरोसा नहीं है जीवन असंस्कृत है जब तक इस शरीर में श्वास चलती है तब इंजन रूपी शरीर गतिमान है। श्वास बिगड गयी, थम गयी तो इसे सुधारने वाला न देवगति में है ना मनुष्य गति में। सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तीर्थकंर सभी का उपाय बताने में समर्थ है परन्तु रुकी हुई साँस को गतिमान करने का उपाय उनके पास भी नहीं है फिर साधारण मनुष्य का क्या कहे। कितना भी धन क्यों न हो कितना ही प्रेम करने वाला परिवार हो पर मरण आने पर कुछ भी काम नही आता।
सिकंदर ने पूरे विश्व पर अपना अधिकार जमा लिया परन्तु मरण काल निकट आने पर उसे कोई बचा न सका। चाहे कोई भी कुलदेवी हो, या अन्य कोई भी देवता है, थमी हुई साँस को चलाने में कोई समर्थ नही है तीर्थकंर कहते है सासें थमने के पहले पाल बाँध सकते है। सभी टूटी हुई चीजों को जोड़ा जा सकता है परन्तु टूटी सांस को जोड़ने का साम्थर्य किसी डॉक्टर के पास नहीं है। मात्र एक धर्म की शरण में आने से, शुद्ध धर्म का पालन करने से जन्म-मरण की श्रृंखला को विराम लग जायेगा। क्योंकि, आत्मा को सांस की आवश्यकता नहीं होती। आत्मा को तो कर्म बन्धन से मुक्ति चाहिए। शरीर तो एक मात्र साधन है कर्म निर्जरा का इसलिए समय रहते इसका उपयोग कर लो।
जीव गर्भ में भी, बाल्यकाल में भी कर्म निर्जरा कर सकता है यदि माँ स्वाध्याय करती है जिनवाणी का श्रवण करती है तो गर्भ में बालक के शुभ कर्मो का बन्ध होता है अशुभ कर्मों की निर्जरा होती है इसलिए गर्भवती महिला को ज्यादा से ज्यादा धर्म- ध्यान करना चाहिए, क्योंकि गर्भ में भी केवल ज्ञान, केवल दर्शन की प्राप्ति हो सकती है। माँ और बच्चे दोनों का जीवन सफल हो जाता है। इसलिए एक समय का भी प्रमाद करो। ज्ञानीजन कहते है कि बाल्यकाल से ही बच्चों को धर्म के संस्कार देना चाहिए। गुस्सा करना, लड़ाई करना सिखाना नहीं पड़ता, परन्तु धर्म करना सिखाना पड़ता है। धर्म में पराक्रम फोड़ना बहुत मुश्किल है।