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‘जिससे मोक्ष का सुख मिलता है उसका नाम है दीक्षा’: आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीजी

‘जिससे मोक्ष का सुख मिलता है उसका नाम है दीक्षा’: आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीजी

नेमिनाथ परमात्मा के दीक्षा कल्याणक पर आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीजी ने कहा

किलपाॅक श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ में विराजित योगनिष्ठ आचार्यश्री केशरसूरीश्वरजी समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी म.सा. ने नेमिनाथ परमात्मा के दीक्षा कल्याणक के अवसर पर परमात्मा के जीवन चरित्र पर प्रकाश डालते हुए कहा कि मणि के प्रकाश से ज्यादा तेजस्वी रत्न की होता है। अरिष्टरत्न के सानिध्य में रहने से हर तरह की मलिनता, दूषण दूर होते हैं, ऐसा अरिष्टरत्न सिवदेवी माता ने नेमकुमार के गर्भ में आने पर देखा था। नेमिनाथ परमात्मा का नाम गुणवाची और रत्नवाची है। नेमिनाथ परमात्मा को चंद्रमा की उपमा दी गई। उन्होंने कहा तीर्थंकरों का नाम गुणों के आधार पर बनता है। गुण व पुण्य के आधार पर वे विश्व का कल्याण करते हैं। नेमिनाथ परमात्मा ने तीन सौ वर्ष की आयु में दीक्षा ग्रहण की। उनका कुल आयुष्य एक हजार वर्ष का था।

उनकी दीक्षा एवं केवलज्ञान गिरनार में हुए। उन्होंने कुल सात सौ वर्ष का दीक्षा पर्याय पाला था। उन्होंने कहा दीक्षा तीन तरह की होती है मंत्र दीक्षा, यह प्रथम मात्र नाम से है क्यूंकि यहां मात्र मंत्र श्रवण का विधान ही होता है, जीवन दीक्षा और कल्याणक दीक्षा। मंत्र दीक्षा का वर्णन आगम में कहीं नहीं आया है। ‘धर्म संग्रह’ ग्रंथ में दीक्षा का मतलब बताया गया है कि जिससे मोक्ष का सुख मिलता है, जिससे अपने पापकर्म धुल जाए, उसका नाम है दीक्षा। नेमीनाथ परमात्मा की दीक्षा का वरघोड़ा एक योजन लंबा हुआ। तीर्थंकर परमात्मा की दीक्षा के पहले एक वर्ष का वर्षीदान होता है। वे सोने की मोहरें, वस्त्र, भोजन, मकान आदि संपत्ति का दान ही नहीं बल्कि संतोष का भी दान करते हैं।‌ परंतु वर्तमान में हमारे पास प्रसाधन ज्यादा है और अनुशासन कम है, हमारी ऐसी स्थिति है। उन्होंने कहा जहां मोह होता है, वहां खेद होता है। औचित्य ऐसा पालना चाहिए कि आगे का जीवन गुणों से भरपूर रहे। छोटी बातों में लेटगो करना सीखो और बड़ी बातों में लेटगोड करो। जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा अवश्य करता ही है।

आचार्य भगवंत ने कहा जगत में लोग कृति, आकृति, संस्कृति, प्रकृति अथवा विकृति से जीते हैं। कृति यानी रचनात्मक कार्य द्वारा जीना। संस्कृति यानी जो संस्कृति की रक्षा के लिए जीवन जीते हैं। प्रकृति के तीन प्रकार है पर्यावरण, अपना स्वभाव और प्रजा। तीर्थंकर की आत्मा प्रकृति के आधार पर जीती हैं। पूर्व समय में जीवरक्षा के लिए राज्य को त्याग देते थे परन्तु वर्तमान की स्थिति इससे उलटी है। राज्य के लिए जीवरक्षा की बलि चढ़ा देते हैं। हमें विकृति का जीवन नहीं जीना चाहिए बल्कि प्रकृति का जीवन जीना चाहिए। उन्होंने कहा नेमिनाथ परमात्मा के सात विशेष गुण हैं सामर्थ्य, धैर्य यानी गंभीरता, औदार्य यानी उदारता, करुणा, चातुर्य, नम्रता और दाक्षिण्यता। उन्होंने कहा दो व्यक्ति कभी प्रायश्चित नहीं लेते पहले सर्वज्ञ और दूसरे जिसे गलती का एहसास ही ना हो। ज्ञान अनुभव बने तब ही मोक्ष का कारण बनता है।

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