सौभाग्य प्रकाश संयम सवर्णोत्सव चातुर्मास खाचरोद
मुनि को निर्वाण का उपदेश करना , मुक्ति का उपदेश करना, जिसने बंधन को समझा वह मुक्ति को समझेगा यह बात बताते हुए
पुज्य प्रर्वतक की प्रकाश मुनि जी मासा ने फरमाया कि.. संत ज्ञान के दिपक होते है। स्व व पर को प्रकाशीत करते हैं। दीपक के प्रकाश से सब दिखता है। ज्ञान से स्व व पर को देखते है। *स्व पर प्रकाशम इति ज्ञान* -जो स्वयं व पर को प्रकाशीत करता है वह ज्ञानी है ।
*आप कौन है !* में मात्मा हूँ। ज्ञानपहले स्वप्रकाशीत होता है, आप अपने आप को जानते हे दुसरे को नहीं जानते हे। मन: पर्याय ज्ञान का स्वामी वह सामने वाले के मन में क्या चल रहा है वह जानता है, अपने चिंतन को अपन या सर्वज्ञानी जानते है ! पर हम उनको नहीं जानते हैं।
गुरुरेव संतों को रत्न की उपमा दी है। स्वप्रकाशीत है वह उससे को भी प्रकाशित करते हे। जलकांत मणि,सूर्यकांत मणि, चंद्रकांत मणि, मणियों को वर्णन आता है। यह नेसर्गीक व देवकृत्य होती है ।वह पुण्य वाल होगा जिसके पास मणी होगी। इंसान है जो पक्षी बनने की इच्छा करता है आदमी की चाह है। नाग-नागिन वैर का बदला लेती है जो वैर की भावना रखता है वह नाग की प्रवृत्ती वाला होता है।
आत्म-ज्ञान यह मणी हे! मैं कौन हूँ। जिसने जान लिया वह मुक्त हो गया। आपकी तैयारी थी बंधन में आने की बंधन में सुख मानते वाला अज्ञानी। बंधन को दुःख मानने वाले ज्ञानी है।
आसक्ति होती है तो बंधन छुडता नहीं। जीव व अजीब पर आसक्ति है, कहा तक काम आते है.. जब तक आपकी पुण्याई है तब तक। किसी पर भी अति विश्वास मत करना ! जहाँ अतिविश्वास होता है वहाँ धोखा होता है , फिर आत्रध्यान व रौद्रध्यान आता है। *अतिविश्वास दुःख का कारण है।*
*पदे पदे निधानं* – जहाँ खड़े हो वह सब अनुकुलता हो जाती है। सदा आनंद जो सोचा वह पुरा होता है। गुरु का आशीर्वाद पुण्याई है तो जेब में कुछ नहीं हो तो भी सब मिल जाता हे ।
अनि सुख भी दुःख का कारण है, अतिविश्वास भी दुख का कारण है
दृश्टान्त – योगी को अमर फल (जवान रहने)मिला उसने भर्तृहरि राजा को दिया राजा ने पिंगला रानी दिया उसने महावत को दिया उसने वेश्या को दिया उसने राजा को दिया उन्होंने पूछा कहा से लाई सारा राज खुल जाता है …
इंद्रिया जब काम करना बंद कर दे तो मतलब बुढ़ापा आ गया चार दु:ख हर जीव के साथ है 1 जन्म का दुःख, 2-रोग का दुःख, 3-बुढ़ापे का दु:ख, 4-मौत का दुःख आदमी अमर रहने का प्रयास करता है औदारिक शरीर का विनाश हो होता ही है।
आत्मज्ञान – अपने आप का ज्ञान हो जाना। डर चौर के मन में । 300 श्लोक राजा भर्तरी राजा ने लिखा । श्रृंगार का शतक, वैराग्य शतक, निती शतक लिखा ।
*मां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता*,
*साप्यन्य मिच्छति जनं स जनोऽन्य सकतः ।*
*अस्मत्कृते च परितुष्यति काविचदन्याः,*
*धिक् तां च तम च मदनं च माम् च ।*
जिसको रात दिन में मन में रखता हूँ वह मुझसे विरक्त है। वह दूसरे को चाहती है ,दूसरा तीसरे को चाहती है धिक्कार है संसार को , रानी को , वेश्या को , महावत को धिक्कार है । मेने रानी पर विश्वास करके विक्रम मेरे भाई को निकाला तुम विक्रम को लाना उनको राज्य देना। राजा धन में, राज्य में , नारी में सुख मानता था ।
आप मे आसक्ति है , देने के बाद कोई संबंध नही , छोड दिया मतलब नही , वह सामने वाला उसका चाहे जो करे। आत्म ज्ञानी शरीर को अपना नही माने। आसक्ति छुटे तो बंधन छुटे, मुनि मुक्ति का उपदेश करे, भावी आत्मा को मुक्ति का उपदेश करे,आसक्ति तोड़ना है , समझे तो यह आत्म ज्ञान ।