रायपुरम जैन भवन में विराजित पुज्य जयतिलक जी म सा ने प्रवचन में बताया कि जिन धर्म का मौलिक लक्ष्य कर्म निर्जरा है। जो स्वयं को प्राप्त होते है वे अपनी आत्मा को तप रूपी अनुष्ठान को करता है। भगवान ने इतना सुलभ धर्म मार्ग बताया जिसमे कमजोर से कमजोर जीव भी कर्म निर्जरा कर सकता है। भगवान ने फ़रमाया मुक्ति सरलता सहजता सुगमता से प्राप्त होती है। किंतु जीव संसार में उलझा रहता है! सभी प्रकार से चिंतन करके सभी जीवों को लक्ष्य में रख कर शाश्वत मोक्ष को प्राप्त करने का मार्ग निरूपण किया। निर्जरा के 12 भेद बताए। पहला ही पर्याप्त था किंतु जीव का सामर्थ्य है अलग अलग है उसी क्षमतानुसार तप रुपी पुष्प को चुन कर धारण कर आत्म कल्याण कर सके। पहला मार्ग अनशन जो नवकारसी से लेकर छ मासी तप का निरुपण किया। गांठ बांधकर मुट्ठी बांध कर समय का त्याग भी पच्खान है! जिह्वा की लोलुपता का कोई पार नहीं है इसे वश में करो! त्याग पच्खान से शरीर स्वस्थ रहता है। कर्म निर्जरा भी होती है। अवश्य रोज करें।
उनोदरी :- उन= कम, उदर- पेट, ! भुख से कम खाना उनोदरी तप है। स्वस्थ पुरुष को 32 कवल का प्रमाण, स्त्री को 28 कंवल और नपुंसक को 24 कवल आहार की आवश्यकता है!
यदि, उसमें से आठ कवल कम करते हैं तो पाव उनोदरी, 16 कवल कम करे तो आधी उनोदारी, यदि 24 कवल कम करे तो पौन उनोदरी होती है यदि यह भी नहीं हो सकता तो किंचित उनोदरी कर लो अर्थात भुख से थोडा कम खा लो! जीव को भोजन के प्रति आसक्ति वो उनोदरी तप नहीं कर पाता! मन पसंद रस युक्त भोजन मिलने के बाद भी उनोदरी करना है तो उस कर्मो उनोदरी तप द्वारा कर्मों की निर्जरा होती है। अनासक्त बनकर स्वादिष्ट भोजन करते है तो खाते पीते उपवास हो जाता है। आसक्ति से कर्मबंध और अनासक्त से कर्म निर्जरा होगी। अतः ज्ञानीजन कहते है आप कुछ भी भोग करो अनासक्त भाव से।
तप करने के बाद पारणे में कम से कम द्रव्य उपयोग ले ! उनोदरी तप करने से कर्म निर्जरा होती है! जिस दीन अधिक द्रव्य हो उस दिन उनोदरी करो! उससे आसक्ति घट जायेगी। अनासक्त भाव से भोजन करना उपवास के बराबर है। अपनी आत्मा के समीप हो! आत्म चिंतन चलता है। कर्मो की निर्जरा का मात्र एक उपदेश दिया ! जैन धर्म कर्म निर्जरा को प्रधानता देता है शेष बातों को गोण करता है।
अत: अनासकक्त भाव से संसार में रहो। आत्म से कर्म को मुक्त करने का लक्ष्य रखे ! यह जानकारी नमिता स॑चेती ने दी।