🛕 *स्थल: श्री राजेन्द्र भवन चेन्नई*
🪷 *विश्व हितेषी प्रभु श्रीमद् विजय राजेंद्र सुरीश्वरजी महाराज साहब के प्रशिष्यरत्न दीर्घ दृष्टा, गीतार्थ श्रीमद् विजय जयंतसेनसुरीश्वरजी म.सा.के कृपापात्र सुशिष्यरत्न श्रुतप्रभावक मुनिप्रवर श्री डॉ. वैभवरत्नविजयजी म.सा.* के प्रवचन के अंश
🪔 *विषय : अभिधान राजेंद्र कोष भाग 7*🪔
~ हमारे जीवन में यदि हमारी आत्मा, आत्मा का हित, आत्मा की शुद्धि को ही देखने की दृष्टि यदि है तो हम अन्य जीवों के भी आत्मा को ही देखेंगे।
~ ये मानव भव का सर्वश्रेष्ठ धर्म यह है कि स्वभाव का परिवर्तन।
~ जिन्होंने स्वयं का मूलभूत परिवर्तन किया उसके जीवन में सफलता हर पल मिलती ही है।
~ ज्ञानी भगवंत कहते हैं कि जो साधक ने सम्यक् दर्शन के भावों वाली श्रेष्ठ साधना की है उसके जीवन में स्वभाव, विचार, व्यवहार, मान्यता का मूलभूत बदलाव होता है।
~ हमारा मन हर पल पाप की रुचि वाला नहीं ही होना चाहिए इसीलिए हर पल जो हमारा सत्य स्वभाव है क्षमा, नम्रता उसी की रुचि करनी चाहिए।
~ मन के दोषों से मुक्त होने की भावना प्रबल इसलिए नहीं है कि पाप का फल का ज्ञान नहीं और पाप के प्रति भी राग रखा हआ।
~ सम्यक् दर्शन वाला जीवन राग द्वेष के मूलभूत अंत से ही प्रारंभ होता है।
~ ज्ञानी भगवंत कहते हैं कि जहां पापों के प्रति घृणा, पापों का प्रायश्चित, तीव्र आसक्ति कोई भी घटना में ना हो, स्वभाव परिवर्तन हो ऐसी क्रिया ही धर्म है।
~ जो साधक ने स्वयं के जीवन में अध्यात्म, ज्ञान, गुण को ही महत्वपूर्ण रखा है उसकी क्रिया शीघ्र, मूलभूत, अनंत कर्म क्षय को फल देने वाली होती ही है।
~ हमारा स्वभाव यदि पापों के राग वाला, संसार की आसक्ति वाला है तो इसके साथ की हुई कितनी भी श्रेष्ठ क्रिया हो वह fail है।
~ सभी क्रियाओं का श्रेष्ट रूप से करने का मूल रहस्य एक ही है स्वभाव के परिवर्तन के साथ परमात्मा का मिलन होना ही चाहिए।
~ मानव जो रास्ते के मोड पर मोड़ लेता है वैसे ही जीवन में स्वभाव का परिवर्तन का मोड़ लेना ही चाहिए।
*”जय जिनेंद्र-जय गुरुदेव”*
🏫 *श्री राजेन्द्रसुरीश्वरजी जैन ट्रस्ट, चेन्नई*🇳🇪