जैनाचार्य श्रीमद् विजय रत्नसेनसुरीश्वरजी म.सा. ने श्री मुनिसुव्रतस्वामि नवग्रह जैन मन्दिर आरधना भवन मे आयोजित धर्मसभा को प्रवचन देते हुए कहा कि :-त्याग की आधारशिला वैराग्य भावना है।
वैराग्य के अभाव में किये गए त्याग का कोई विशेष मूल्य नहीं हैं। अभव्य की आत्मा भी संसार के समस्त सुखों का त्याग कर , त्यागमय संयम जीवन का स्वीकार करती हैं, परंतु उस त्याग में वास्तविक वैराग्य नहीं होने से उस त्याग का कोई मूल्य नहीं हैं।
साधु – जीवन के स्वीकार में संपूर्ण त्यागमय जीवन का स्वीकार हैं। कालक्रम से उस त्याग में मन्दता आने की संभावना रहती हैं। इसीलिये ज्ञानीयों ने उस त्याग को जीवन्त बनाये रखने के लिए साधुओं को सतत स्वाध्याय की आज्ञा फरमाई हैं। स्वाध्याय से वैराग्य भावना मजबूत रहती हैं।
अपनी वैराग्य भावना को दृढ़ करने के लिए साधुओं को बार -बार वैराग्य पोषक ग्रंथों का स्वाध्याय करना चाहिए। श्रावक के बारहव्रतों की आधारशिला हैं-सम्यक्त्व। श्रावक के व्रतों को ” सम्यक्त्व मूल बारह व्रत ‘”कहा जाता हैं, अर्थात् बारह व्रतों को स्वीकर करने से पहले श्रावक को सम्यक्त्व स्वीकार अवश्य करना चाहिए।
सम्यक्त्व का मूल हैं- भवनिर्वेद अर्थात् संसार के प्रति वैराग्य भाव। इस अपेक्षा कह सकते है । कि श्रावक जीवन का भी मुख्य आधार वैराग्य भाव ही हैं।
वैराग्य भावना के लिए स्वाध्याय जरुरी हैं। जिनवाणी का श्रवण भी एक प्रकार का स्वाध्याय ही हैं। जिनवाणी के श्रवण से श्रावक को आगमों के रहस्यों का सत्य बोध होता हैं।
चातुर्मास सिवाय शेषकाल में गूरु भगवंतों का योग सभी को नहीं मिल पाता हैं। चातुर्मास दरम्यान गूरु भगवंतों की एक ही गांव या नगर में स्थिरता रहती हैं। चातुर्मास दरम्यान गुरू भगवंतों के मुख से जिनवाणी श्रवण का लाभ मिल सकता हैं।