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जिनवाणी वन्डरफुल है: तप चक्रेश्वरी अरुण प्रभा जी मसा

जिनवाणी वन्डरफुल है: तप चक्रेश्वरी अरुण प्रभा जी मसा

धर्म आर्टफुल है, कर्म वन्डरफुल है, संसार के उल्टे रूल है, जिनवाणी वन्डरफुल है। भगवान महावीर स्वामी ने धर्म के 4 स्तम्भ बताए है । साधु, साध्वी, श्रावक श्राविका । जो आगार (घर परिवार) को छोड़कर अनगार बन जाते है वो साधु साध्वी है। साधु साध्वी की धर्म साधना धर्म क्रिया में सद्गृहस्थ का सहयोग रहता है। आहार पानी ऐसी 14 प्रकार की चीजों का दान देकर श्रावक श्राविकाएं सन्त सतियों की संयम यात्रा को निर्विध्न करवाने में सहायक बनते है।

श्रमणोंपासक साधु साध्वी के ज्ञान ध्यान में वृद्धि करने वाला, साधु साध्वी के गुणों की प्रशंसा करने वाला, धर्म का श्रवण करने वाला ऐसा श्रावक देव गुरु धर्म के प्रति सम्यक श्रद्धा रखने वाला होता है। सम्यक श्रद्धा एंव अंध श्रद्धा में फर्क होता है । श्रमण भगवान महावीर का पदार्पण वैशाली नगरी में हुआ। एक पँहुचे हुए अंबर सन्यासी ने भगवान की वाणी से प्रभावित होकर श्रावक के 12 व्रतों को स्वीकार किया । उसके स्वंय के 70 शिष्य थे। वह बेले बेले की तपस्या करता था, उसे लब्धि की प्राप्ति हो गई ।

उसमें भगवन से कहा पारणा करने राजगृही जा रहा हूँ। भगवान ने कहा राहगृही में सुलसा श्राविका है उसके साढे तीन करोड़ रोम रोम में धर्म बसा है, उसे धर्म सन्देश देना।सन्यासी ने सोचा राजगृही में भगवान का भक्त स्वंय राजा श्रेणिक है और भी कई भगवान के भक्त है, प्रभु ने केवल सुलसा श्राविका को धर्म सन्देश देने का क्यों कहा होगा। । अपने शिष्यों के साथ वो राजगृही के बाहर नन्दन उद्यान में ठहरे। अपनी लब्धी के बल पर वो नगर में चमत्कार दिखाने लगे । तप रूपी साबुन से आत्मा को साफ करने से लब्धि की प्राप्ति होती है ।

अम्बर सन्यासी की लब्धी की बात पूरे नगर में फैल गई, लोग उसके दर्शन करने आने लगे । बात सुलसा श्राविका तक पँहुची सबने सुलसा को कहा सन्यासी के दर्शन करने चलो वो चमत्कारी है। सुलसा ने कहा मेरे तो रोम रोम में भगवान महावीर बसे है, देव गुरु धर्म के प्रति ही मेरी सम्यक श्रध्दा है। में किसी सन्यासी के दर्शन करने नही जाऊँगी। अम्बर योगी ने भी सन्देश पंहुचाया, चमत्कार दिखाए लेकिन सुलसा अपनी श्रद्धा से डिगी नही । फिर अम्बर सन्यासी स्वंय पारणा करने सुलसा श्राविका के यँहा गया और उसे भगवान का धर्म सन्देश दिया । ये होती है सम्यक श्रद्धा।

शतावधानी पूज्या श्री गुरु कीर्ति ने मेरे महावीर को जानो विषय को आगे बढाते हुए फरमाया की विश्वभूति उद्यान का शौकीन था। वो महीनों महीनों तक अपने परिवार के साथ उद्यान में रहता था। लोग कहते की राजा का सगा बेटा तो बाहर रहता है और भतीजा महीनों महीनों उद्यान में मौज करता है। विशाखानन्दी के मन में आया की ये तो मेरे साथ अन्याय है। वो माँ के पास जाता है और माँ से शिकायत करता है। माँ समझाती है तू बड़ा है बड़ा मन रख तेरा भी नम्बर आएगा उस वक्त तू उद्यान में चला जाना।

विशाखानन्दी उस वक्त तो मान गया लेकिन उसके मन में एक कसक थी। कुछ दिनों बाद विशाखानन्दी की दासी उद्यान में फूल लेने के लिए गई, वँहा वो देखती है की विश्वभूति की रानियां तो रानियां दासियां भी उद्यान में आँनन्द कर रही है। दासी के मन में स्वार्थ आ गया। वो राजमाता के पास गई और राजमाता से कहा की आपका बेटा तो गली गली में भटक रहा है और उधर विश्वभूति उद्यान में मजे कर रहा है। अबकी बार रानी दासी की बातों में आ गई और कोप भवन में जाकर बैठ गई।

राजा रानी के पास गया और कारण पूछा तो रानी ने कहा हमारे बेटे को उद्यान में जाना है, राजा ने कहा विश्वभूति आ जाएगा फिर भेज देंगे, राज परिवार का नियम है की अगर राजपरिवार को कोई परिवार उद्यान में है तो दूसरा परिवार नही जा सकता है । लेकिन रानी कहती है मैं कुछ नही जानती मेरा बेटा अभी जाएगा। राजा ये कर नही सकता था, इसलिये परेशान होकर लौट आया। मंत्री ने राजा को उदास देखा तो उदासी का कारण पूछा। अपने घर की बात बाहर किसी को नही बताना चाहिये घर के राज घर में ही रहना चाहिये, घर की बात घर के बाहरी व्यक्ति को बताना मतलब दीवार में कान बनाना। राजा घर की बात बाहर बताएगा या नही। ये आगे प्रवचन में सुनने पर पता चलेगा।

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