अनन्त पुण्यवानी के प्रताप से सुख सुविधाए मिलती है। जिनवाणी का स्मरण करने से पुण्य की क्यारी खिलती है। सुख, महासुख और परमसुख । सबके मन में भावना रहती है परमसुख की, परमसुख मोक्ष में है। सिद्ध आत्माएं मोक्ष में है। सिद्ध कैसे है – जँहा जन्म नही मरण नही, शरीर नही, भूख नही, प्यास नही, सगे सम्बन्धी नही । लोक के अग्र भाग में सिद्ध आत्माएँ विराजमान है। सिद्धशीला 45 लाख योजन की है। सिद्ध शिला दूज के चाँद के के आकार की है। आठ कर्मों को क्षय करके सिद्ध आत्मा बनती है।
इस भरत क्षेत्र के इस अवसर्पिणी में मोक्ष जाने वाली पहली आत्मा मरुदेवी माता की है। परमसुख प्राप्त करने के लिये आत्मिक सुख की और बढ़ना होगा। यह भाव मन में आना चाहिये की कब इस संसार को छोड़ू और संयम की और बंढू। मेरी आत्मा अनन्तकाल से कर्मों का बोझ बढ़ा रही है, संयम की और अग्रसर होने से कर्म की निर्जरा होती है। शतावधानी पूज्याश्री गुरु कीर्ति ने मेरे महावीर को जानो कथानक को आगे बढाते हुए फरमाया की नयसार की आत्मा ने 16वें भव में राजगृही नगरी में विशाखाभूति के पुत्र विश्वभूति के रूप में जन्म लिया। विशाखाभूति का बड़ा भाई जो की राजा था उसका बेटा विशाखानंदी था। इस प्रकार विशाखानन्दी और विश्वभूति दोनों चचेरे भाई भाई थे। विश्वभूति शौर्य पराक्रम, व्यवहारकुशल, युद्ध कला में निपुण था, युद्ध करने विश्वभूति ही जाता था, सब तरफ उसी की प्रशंसा होती थी। उसके नाम से सारे राजा महाराजा बलशाली योद्धा डरते थे। विश्वभूति को घूमना फिरना और अपने पसंद के उद्यान में महीनों महीनों तक रहना पसंद था।
दूसरी और विशाखानन्दी डरपोक किस्म का राजकुमार था, बात बात में टोका टाकी करना उसका काम था। आयुधशाला में जब विश्वभूति अपना युध्द कौशल दिखाता तो विशाखानन्दी विश्वभूति को चिढ़ाता की तू चाहे कितना भी पराक्रम कर ले राजा तो में ही बनूँगा क्योंकि में बड़ा हूँ और में राजा की संतान हूँ । विश्वभूति ने पूर्व जन्म में अपनी जाति का अभिमान किया था, इसलिये छोटा भाई बनना पड़ा और अपमान सहना पड़ा। आगे विश्वभूति के साथ क्या घटित होता है यह अगले प्रवचन में सुनने पर पता चलेगा।