यस यस जैन संघ नार्थ टाउन में चातुर्मासार्थ विराजित गुरुदेव जयतिलक मुनिजी ने प्रवचन में फरमाया कि जिनकी तरफ से पिछले पर्युषण पर्व की आराधन में कमी रह गई तो इस पर्युषण पर्व में कमी पूरी कर सकते है। तप-त्याग, धर्म आराधना से अपनी आत्मा को जोड़ने का लक्ष्य रखना चाहिए। दूसरी बार पर्युषण पर्व मनाना अति पुण्यवाणी का फल है। जितनी ज्यादा धर्म आराधना में लग्न होगी उतनी ही कर्म निर्जरा होगी। लौकिक विद्या और लोकोत्तर विद्या ये दो प्रकार की विद्या है।
लौकिक विद्या को मोक्ष मार्ग की विद्या नहीं समझना चाहिए । ये विद्या सांसारिक विद्या है। आध्यात्मिक विद्या मोक्ष मार्ग की विद्या है। दोनों विध्याओं का अपना महत्व है। आगमकारों ने लौकिक विद्या को मिथ्यात्व नहीं कहा क्योंकि लौकिक विद्या से उन्होंने तीनों काल को जान कर सांसारिक बाधाओं को दूर किया। निमित्त ज्ञान एकान्त रूप से मिथ्यात्व नही है। लौकिक विद्या के प्रयोग से पाप कर्म का बंध होता है संसार परिभ्रमण बढ़ता है। भगवान कहते है धार्मिक क्रियाओं का आचरण कर पापों के कर्म बंध का क्षय कर सकते हैं।
मृत शरीर को जीवित करने की शक्ति इस संसार में किसी में भी नही है। संसार में सभी एक दूसरे की सेवा कामनों पूर्ति के लिए करते है। शरीर में रोग आने पर उस वेदना को भोगने की बजाय तप करके ठीक करने की बजाय डॉक्टर के पास जा इलाज कर दवाई ले उस रोग से बचाव कर कर्म बधं करते है। कामना सहित तप निर्जरा की श्रेणी में आता हैं अकाम कामना रहित तप सकाम निर्जरा की श्रेणी में आता है। कभी किसी पर झूठा आरोप नहीं लगाना चाहिए, क्योंकि बड़ा झूठ बोलने वाले को अपने संतान के वियोग का दुख भोगना पड़ता है।