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जहां स्वार्थ प्रबल है वहां धर्म नहीं हो सकता: आचार्य तीर्थभद्रसूरीश्वर

जहां स्वार्थ प्रबल है वहां धर्म नहीं हो सकता: आचार्य तीर्थभद्रसूरीश्वर

चेन्नई. किलपॉक में चातुर्मासार्थ विराजित आचार्य तीर्थभद्रसूरीश्वर ने कहा जब तक मोह का बंधन रहेगा, दुख मुक्ति, पाप मुक्ति और देह मुक्ति से छुटकारा नहीं मिल पाएगा। संसार के प्रत्येक प्राणी में चार प्रकार की संज्ञा अवश्य होती है, मनुष्य इन संज्ञाओं के वश में है। साधु जीवन में तो इनके त्याग की कोशिश रहती है। ये संज्ञाएं हैं आहार, भय, परिग्रह और लोभ संज्ञा।

बार बार खाने की अभिलाषा आहार संज्ञा है। भय हर प्राणी में विद्यमान रहता है। तीसरी काम भावना और चौथी अधिक धन संग्रह की अभिलाषा यानी परिग्रह संज्ञा होती है। जब तक हम चार संज्ञा के फेर में रहेंगे हमें सद्गति प्राप्त नहीं हो सकती। यदि आपको बहुत भूख लगे तो समझना चाहिए आप तिर्यंच गति से आए हैं।

तप का मुख्य लक्ष्य आहार संज्ञा को तोडऩा है और यही सम्यक तप है। सबसे ज्यादा भय नरक में है। तीर्थंकर भगवान ने इन संज्ञा पर विजय पाने के चार उपाय बताए हैं दान, शील, तप और भाव। इनमें दान का स्थान प्रथम है। धर्म की शुरुआत दान धर्म से हुई। उत्कृष्ट भाव से दिया हुआ दान शुभ परिणाम देता है।

दान देने वाले का पुण्य बढ़ता है, पाने वाले की जरूरत भी पूरी हो जाती है। कोई भी शुभ कार्य करने के पहले साधर्मिक भक्ति, जीव दया जैसे मंगल कार्य करना चाहिए। दान की भावना उत्कृष्ट है क्योंकि दूसरों की चिंता व अभाव में यह सहायक सिद्ध होता है।

अपनी चिंता तो हरेक कोई करता है पर दूसरों की सुख सुविधा के लिए सोचना मंगल है। जहां स्वार्थ प्रबल है वहां धर्म नहीं हो सकता। दान के लिए हृदय की विशालता चाहिए।

उन्होंने कहा दूसरों के सुख दु:ख की चिन्ता करने से पुण्य का सर्जन होता है। अनादि काल से मोह का बंधन हमें घेरे रहता है। मोह हमेशा खुद की चिंता पैदा करता है। हम केवल क्रियात्मक धर्म के बारे में सोचते हैं लेकिन भावनात्मक धर्म की उपेक्षा कर रहे हैं।

मोक्ष प्राप्ति के लिए क्रिया के साथ भावना का समन्वय आवश्यक है। आचार्य ने कहा तीर्यंच गति से मनुष्य भव मिलना बहुत मुश्किल है। पुण्य संचय कर मृत्यु प्राप्त होने पर दूसरा भव सुधरता है।

जिसके हृदय में दया, प्रेम और परमार्थ की भावना है उसके प्रभाव से पुण्य बल बढता है। नि:स्वार्थ दान से परमात्मा की कृपा को महसूस किया जा सकता है। अरिहंत भगवान में परमार्थ की पराकाष्ठा थी इसलिए वे तीर्थंकर बने।

वे परमार्थ भाव के साथ देशना देते है। मनुष्य जीवन में धर्म की आराधना कर संज्ञा पर विजय प्राप्त करें।

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