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जब तक तत्वों का बोध नहीं होता तब तक जीव मुक्त नहीं हो सकता है: जयतिलक मुनिजी

जब तक तत्वों का बोध नहीं होता तब तक जीव मुक्त नहीं हो सकता है: जयतिलक मुनिजी

 

यस यस जैन संघ नार्थ टाउन में चातुर्मासार्थ विराजित गुरुदेव जयतिलक मुनिजी ने नव तत्वों का स्वरूप इस प्रकार बताया, जीव अनादिकाल से शुभ-अशुभ प्रवृत्तियाँ करते हुए आठ कर्मों का बधं करता रहता है जब तक तत्वों का बोध नहीं होता तब तक जीव मुक्त नहीं हो सकता है। जिनेश्वर देवों ने सम्पूर्ण लोक का मंथन करके सार निकाला। संसार का सार ही नव तत्व है।

बाकी सब कुछ असार है। तत्वों को जान कर समझ कर आचरण करने योग्य तत्वों को धारण करो जानने योग्य तत्वों को जानो और छोड़ने योग्य तत्वों को छोड़ो। तत्व स्वरूप को जानने का लक्ष्य मोक्ष तत्व को पाना है। ज्ञानी जन कहते है परीक्षा देने की भावना जरूर रखनी चाहिए। लौकोत्तर ज्ञान की परीक्षा देने से ज्ञान प्राप्त होता है।

मुख्य दो तत्व है जीव अजीव इनके साथ बोल जुड़ते है और नव तत्व के प्रकार बनते है। जो चेतना वान है सुख-दुःख का भोक्ता है वह जीव है विशेष ज्ञान का ज्ञाता है वह जीव है। जिसमें चेतना उपयोग लक्षण का आभाव है वह अजीव है। शुभ प्रवृति पुण्य और अशुभ प्रवृत्ति पाप है। कर्म बंध में सहयोगी आस्त्रव है। इसलिए आस्त्रव होने को जानना और उस द्वार को बंद करना आवश्यक है। ये बंद करने कि क्रिया संवर है। फिर संचित कर्मों को क्षय करना निर्जरा है। कर्म पुदगलो का आत्मा के साथ दूध-पानी की तरह एकमेक होना बंधे है। और मुक्त होने के लिए ज्ञानीयों की शरण में आना चाहिए जिससे ज्ञान प्राप्त कर, पुरुषार्थ कर, कर्मो का क्षय कर सकते है।

कर्मो का क्षय करने के लिए जिनेश्वर देवों ने निर्जरा के 12 भेद बताये है। बाह्य तप शरीर की शुद्धि और आभ्यन्तर तप आत्म शुद्धि करता है। शरीर बाहर से रूपवान नजर आता है, पर भीतर की गन्दगी जब पता चलती है तो ही जीव कर्म-क्षय की कोशिश करता है। तीर्थंकर के बताये मार्ग पर चलने वाले साधक शरीर, की शुद्धि नहीं करते अधिक आरंभिक शुद्धि का पुरुषार्थ करते है इसलिए उनके शरीर से दुर्गंध नहीं आती। जैसे-2 आत्मा कर्म मुक्त होती है वैसे -2 ऊपर उठती जाती है।

मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले को पुण्य का सेवन भी नहीं करना चाहिए। आज जन्माष्टमी है कृष्ण जीवन का वृतांत सुन ज्ञान को ग्रहण करो वासुदेव को भी अपने कर्म भोगने पड़ते है। शादी की धूम धाम में व्यक्ति जो प्रवृति नहीं करनी चाहिए वो प्रवृत्ति कर लेता है। व्यक्ति जितना धर्म करता है उससे कहीं ज्यादा शादी में पाप का बंध कर लेता है। विवेक को भूल कर न करने योग्य कार्य भी व्यक्ति कर लेता है।

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