चेन्नई. जिस कम से कम ज्ञान के बल पर अर्जुनमाली केवली बना ऐसा ज्ञान किसी को भी हो सकता है। हम कैसे चलें, कैसे बोलें, कैसे भोजन करें कि जिससे हमें आनन्द और शक्ति की प्राप्ति हो कि तन, मन और चेतना प्रसन्न हो जाए। वस्तुओं को कैसे रखें अपने अन्तर की एनर्जी सुरक्षित रहे। कैसे वस्तु को लें कि सौभाग्य का उद्घाटन जाए। कैसे कम से कम व्यर्थ करें।
मंगलवार को श्री एमकेएम जैन मेमोरियल, पुरुषावाक्कम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि एवं तीर्थेशऋषि महाराज ने उत्तराध्ययन सूत्र का वाचन कराया। उन्होंने समवशरण की रचना अपने अन्तर में करने की प्रेरणा दी। अपने अन्तर की शुद्धि और पवित्रता का अहसास करते हुए समवशरण की आराधना करते हैं पूर्ण श्रद्धा का भाव रखें। निर्वाण कल्याणक की अनुत्तर देशना जटिल समस्याओं का सरल समाधान देती है।
अपने मन को इस तरह सुरक्षित रखना कि सोचें और काम पूर्ण हो जाए। जो मन के मालिक बनें। अपनी भाषा को सुरक्षित करें कि कब, कैसे और कहां बोलना। तिजोरी में हीरे के समान अपनी काया को सरक्षित करें। परमात्मा ने यह ज्ञान सामान्य से सामान्य व्यक्ति को सर्वोच्च ऊंचाई पहुंचाने के लिए दिया है। उन्होंने कहा है कि जो आप कर रहे हैं उसे थोड़ा सही तरीके से करें।
यदि धर्म अंतराय तोडऩा हो तो जयना, सजगता और यतना करनी चाहिए। आत्मानुभूति को तोडऩी हो तो स्वयं को खोजने में जो बाधाएं हो उनकी जयना करनी चाहिए। द्रव्य, क्षेत्र, काल, में पूरी चेतना लगाए रखें। कुछ बोलना है तो अपना ज्ञान पहुंचाने के लिए, न कि किसी के मन में दुर्भावना बढ़ाने के लिए। द्रोपदी ने तो एक वचन बोला था लेकिन भरी राजसभा में उसे उसका कितना बड़ा परिणाम भुगतना है।
परमात्मा ने कहा है कि आहार के उद्गम का स्रोत, बनने की प्रक्रिया, उसका स्वाद कैसे ले रहे हैं, यह यदि जान लेंगे तो भोजन भी शक्ति का स्रोत बनता है। जहां आसक्ति का स्रोत बन जाता है उससे बड़ी और कोई जंजीर नहीं है। किसी पर भी नेगेटिव कमेंट्स नहीं करें। आहार में कुछ कमी हो तो भी कभी भी प्रशंसात्मक या नकारात्मक कमेंट्स न करें। द्रव्य की मर्यादा रखें।
आज लोग भोजन करते समय अनेक कार्य करते रहते हैं। टीवी देखते हुए, गेम खेलते हुए भोजन आदी करते हैं और सातवीं नारकी के रास्ते बनाते हैं। ये सब अपने दिमाग से अनेक प्रकार की हिंसा के शस्त्र बनाते हैं। परमात्मा की देशना के अवसर पर यह छोटा-सा नियम ग्रहण कर लें कि किसी को भी परेशान करने का चिंतन नहीं करेंगे। इससे आपका मन भगवान हो जाएगा।। जो भी क्रिया करें जागरूक होकर करें।
रिश्तों की महत्ता है कि कैसे एक भाई का रिश्ता दूसरे को मोक्ष में ले जाता है। जयघोष और विजयघोष का प्रसंग बताते हुए कहा कि दोनों सगे भाई ब्राह्मण हैं। जयघोष ने स्नान करते समय नदी पर देखा कि मेंढ़क को सांप खाने को तत्पर है और सांप को एक पक्षी उठाकर ले जाने को। जीव स्वयं मौत के मुंह में जानेवाला है फिर भी दूसरे का शिकार कर रहा है, यह संसार ऐसा है।
उसे लगा कि सारा संसार ही ऐसा है। सब एक-दूसरे का शिकार कर रहे हैं, कोई किसी को स्वीकार नहीं करता है। जयघेाष को संवेग आता है कि मुझे न शिकारी बनना और न शिकार बनना है। वह नदी पर जाता है और श्रमणों के पास दीक्षा लेता है और साधना के डूबकर हिंसा की भावना नष्ट हो जाती है।
तपस्या करते-करते उसे एक दिन लगा कि मेरा भाई तो अभी भी शिकारी बना हुआ है। वह मासखमण के पारणे के लिए उसके पास जाता है। विजयघोष उसे तो भूल जाता है और उसे भिक्षा देने से इंकार करता है। जयघोष कोई नकारात्मक भाव मन में न लाते हुए जयघोष से पूछता है कि तू वेद, यज्ञ और नक्षत्रों और धर्म का मुख नहंी जानता है। जो स्वयं और दूसरों का उद्धार करने में समर्थ है। इन चारों को जानने वाला स्वयं के साथ दूसरों का भी उद्धार करता है यह मुझे बता।
विजयघोष सोचता है कि इतने कर्मकांड के बाद भी मैं तो स्वयं का भी उद्धार नहीं कर पा रहा हंू। वह जयघोष की बात स्वीकार करते हुए पूछता है और वह उसे बताता है कि तपस्या ही ज्योति और यज्ञ की आग है, जहां कर्म का ईंधन और स्वयं का शांतिपाठ किया जाए, मनोइच्छाओं की कड़छी से आहूति दी जाए। बोधि, श्रद्धा व आस्था का चंद्रमा ही नक्षत्रों का मुख है।
जो आर्य वचनों में ही रमण करता है वह किसी प्रकार की हिंसा न करते हुए अपने जीवन में कमल के समान रहते हुए भोगों में आसक्त नहीं रहता है। जीवन शैली के आधार पर तय होता है कि कौन ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैशय और शुद्र है। विजयघोष अपने भाई जयघोष की बातें सुन समाधान प्राप्त कर कहता है कि यह ज्ञान ही सर्वज्ञ है, यही जीव को समर्थ बनाता है और वह आनन्दपूर्वक उसे भिक्षा लेने का आग्रह करता है। तब जयघोष कहता है कि मुझे भिक्षा की नहीं तुम्हारी जरूरत है। मैं तुझे इस संसार सागर से बाहर निकलने को आया हंू और वे देानों ही जिनशासन में समर्पित होकर मोक्ष प्राप्त करते हैं।
समाज और समूह के साथ रहते हुए भी मोक्ष प्राप्त करने के लिए परमात्मा कहते हैं कि जिसको समूह में लोगों के साथ जीने की कला आ गई वह सारे पाप कर्मों से मुक्त होता है, वह समाचारी है।
जीव को बाहरी हमलों से बचना तो आसान है लेकिन अपने स्वजनों की बददुआ से बचना आसान नहीं है। उसे अपने परिजनों की अनदेखी नहीं करनी चाहिए।
यदि परिवार के स्वजनों का आशीर्वाद साथ हो तो पता नहीं कितने ही बाहरी दुर्घटनाओं से आप बचते हैं। घर-परिवारों में आज के समय में इस व्यवस्था की बहुत जरूरत है। घर के बड़ों को इस में अपनी भूमिका सक्रिय करनी होगी। वे स्वजनों को सदैव दुआएं और आशीर्वाद दें भले ही वह आपको महत्व न देते हुए जा रहा हो। घर के छोटों को भी अपने बुजुर्गों का सम्मान करते हुए उनकी अनुमति लें जिससे वे जीवन में हर बाधा से बचते हैं, परमात्मा कहते हैं कि बड़े बुजुर्गों और स्वजनों से अनुमति लेकर ही कहीं जाएं, कोई कदम उठाएंगे तो जीवन में सफलताएं अवश्य मिलती है।