किलपाॅक श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ में विराजित योगनिष्ठ आचार्य केशरसूरी समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी म.सा. ने प्रवचन में हीरसूरि विजयजी महाराज की पुण्यतिथि पर उनका स्मरण करते हुए कहा कि वे ज्ञानयोग, तपोयोग, ब्रह्मचर्य योग, प्रबल प्रभावना के धनी थे। उन्होंने जीवनकाल में अद्भुत साधनाएं की। उनका जन्म विक्रम संवत् 1583 में हुआ, 1593 में उन्होंने दीक्षा और 1610 में आचार्य पदवी ग्रहण की। अकबर बादशाह उनके आचार-संहिता यानी महाव्रत का पालन, विचार संहिता यानी मैत्री भावना और प्रचार संहिता यानी माया के बिना का व्यवहार से बहुत प्रभावित था और उसने विक्रम संवत् 1640 में उनको जगतगुरू की पदवी प्रदान की, वह भी ऐसे समय में जब कुछ धर्म आत्मा और परभव को नहीं मानते थे।
आचार्यश्री ने कहा जिनशासन कहता आया है कि धर्म आत्मा और परभव से जुड़ा हुआ है। तीर्थंकर परमात्मा ने अनंतज्ञान से यह बताया कि आत्मा अनंत बार भव परिवर्तन करती है। सबसे ज्यादा जीवराशि निगोद में बताई। निगोद में रहा हुआ जीव अनंत बार जन्म और मरण की प्रक्रिया से जुड़ता है। ज्ञानी कहते हैं कर्म किए हुए हैं तो फल भुगतने ही पड़ेंगे। उन्होंने कहा हीरसूरि विजयजी की संयम विकास यात्रा का हेतु उनके गुरु दानसूरिजी थे। 12 द्रव्य से अधिक नहीं वापरना, 12 भावनाएं आत्मसात करना, एकासना तप कभी नहीं छोड़ना और अपने गुरु दानसूरिजी के पास दो बार भव आलोचना लेकर 300 उपवास का प्रायश्चित लिया, ये सब शुरू से ही उनके चारित्रिक जीवन के नियम थे।
उन्होंने जीवन में आठ की संख्या में कई प्रायश्चित लिए जैसे 8 अतिचार, 8 प्रमाद, 8 मद, दर्शनाचार के आठ अतिचार, आठ प्रवचन माता समिति आदि। उन्होंने जीवन में 3600 उपवास किये। ज्ञानी कहते हैं जिसे पाप का तीव्र डर है वही यह कर सकता है। उन्होंने गुरु के उपकारों की अनुमोदना करने हेतु 13 माह तक तपस्या की। उन्होंने कहा निकट मोक्षगामी आत्मा को गुरु का दंड मन में खुशी पैदा करता है। आचार्यश्री ने कहा परमात्मा पथ प्रदर्शक है और गुरु पथ प्रवर्तक है, वर्तमान में गुरु परमात्मा तुल्य है। सद्गुरु साहित्य व कल्याण मित्र हमारे जीवन के मार्गदर्शक होते है।