सोमवार को श्री एमकेएम जैन मेमोरियल सेंटर, पुरुषावाक्कम, चेन्नई में चातुर्मासार्थ विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि महाराज एवं तीर्थेशऋषि महाराज द्वारा पर्युषण पर्व के अवसर पर ‘‘संग्रह और परिग्रह में अन्तर’’ विषय पर विशेष व्याख्यान आयोजित हुआ। उपाध्याय प्रवर ने बताया कि जीवन में संग्रह करना पाप नहीं है लेकिन संग्रह किए हुए पर अपना अधिकार जमाए रखना परिग्रह है, पाप है। इस दुनिया में संग्रह पर अधिकार की ही समस्त लड़ाईयां हैं। परमात्मा कहते हैं कि यदि खुला आसमान चाहिए तो परिग्रह को छोड़ें, अपने अधिकारों को छोड़ें। मृत्यु के बाद छूटे उससे पहले अपने अधिकारों को छोडऩे वाला मोक्ष का अधिकारी बनता है।
संग्रह करने का जिसके पास सामथ्र्य है उसे अपनी योग्यता का पूरा उपयोग करते हुए जितना कर सकते हो उतनी ज्यादा कमाई करना चाहिए और साथ-साथ धर्म कार्यों भी करना चाहिए, पुन: बांटना भी चाहिए। धर्म में संग्रह की मनाही नहीं है लेकिन परिग्रह की अनुमति नहीं है। यदि परिग्रह विचारों में आ जाए तो घर में लड़ाई-झगड़े शुरू हो जाते हैं और विचारों का संग्रह हो तो जीवन में परिवर्तन, क्रांति और धर्मयात्रा शुरू हो जाती है। बिखराब कोई काम नहीं आता, संग्रह ही काम आता है। अपने मन, वचन और काया में बिखराव न रखें, ये संग्रहित और केन्द्रीत होने चाहिए। संग्रह करके बांटने वाला साधु होता है, यह महाव्रत है। मधुमक्खी संग्रह करती है तो ही मधु बनता है।
परिग्रह दीवार है तो संग्रह द्वार। परिग्रह बाधा है तो संग्रह समाधान। परिग्रह अधिकार है तो संग्रह बांटने की कला। अपने अधिकारों की एक सीमा बनाएं और उसके बाद अपने अधिकारों का त्याग कर दें। परिग्रह लोभ है और मोक्ष के मार्ग में बाधक है, यह चौथा कषाय है। यह छूटते ही सारे कषाय स्वत: ही जल जाते हैं। यदि हम दान भी करें तो उस पर अपना अधिकार न रखें। देव, गुरु, धर्म के प्रति अपने दान पर अपने अधिकार का बोर्ड न लगाएं, उसे प्रचारित न करें यही अधिकार का त्याग है। लिया हुआ कभी भूलो मत और दिया हुआ बोलो मत। नदी स्वयं में अनेक स्रोतों का जल संग्रह करती है लेकिन स्वयं के पास नहीं रखती तो उसका जल मीठा रहता है और समुद्र जल का परिग्रह करता है तो उसका जल खारा होता है।
शरीर से ही नहीं, मन और भावना से भी तप करें। बाह्य तप के साथ अभ्यन्तर तप होना चाहिए। तप में पापों का प्रायश्चित, विनय और स्वाध्याय करें समाधि में रहें।
उपाध्याय प्रवर ने कहा कि जो उत्तम पुरुष होते हैं उनकी सोच भी उत्तम ही होती है। जो जीव की चरम-सीमा तक श्रीकृष्ण की भांति नियति से लड़ता है और घटनाओं को टालने में पुरुषार्थ करता है, वह अपने कर्मों की निर्जरा करता है और दूसरों के भी पापों के बंधन रोकता है। परिस्थितियों के आगे समर्पण कभी न करें। पुरुषार्थ छोडऩे वाले चेतन नहीं रहते वे जड़ हो जाते हैं। परमात्मा कहते हैं कि पुरुषार्थ करना धर्म है।
तीर्थेशऋषि महाराज ने अंतगड़ श्रुतदेव का संगीतमय श्रवण कराते हुए बताया कि श्रीकृष्ण की पत्नी पद्मावती सहित सभी आठों पटरानियों द्वारा तीर्थंकर अरिष्ठनेमी से दीक्षा ग्रहण कर कठोर तप करते हुए अपने कर्मों का क्षय और आत्मा को भावित कर संयम अंगीकार करती हैैं और आयुष्य पूर्ण कर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो मोक्ष गति को प्राप्त होती हैं। तीर्थंकर प्रभु से द्वारिका का भविष्य जानकर भी श्रीकृष्ण द्वारिका को बचाने का हर संभव पुरुषार्थ करते हैं नियती को टालने का। तीर्थंकर प्रभु उन्हें आयंबिल तप और अनेक धर्म कार्य करने का मार्ग बताते हैं। श्रीकृष्ण, बलराम संघर्ष करते हुए माता-पिता को भी नहीं बचा पाते और वन में विचरण करते हुए जराकुमार के तीर से श्रीकृष्ण का आयुष्य पूरा होता है।
तीर्थेशऋषि महाराज ने कहा कि श्रीकृष्ण के पुरुषार्थ से कितने ही भवि जीवों को मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है और कितनों के पापकर्मों का बंधन टलता है। इसलिए मनुष्य को कभी भी पुरुषार्थ करने से नहीं रुकना चाहिए। उन्होंने बताया कि संसार में दो तरह के जीव होते हैं- स्वयं को तप से पवित्र करने के बाद पुन: संसार में उलझने वाले और दूसरे स्वयं के पापों का क्षय होने के बाद शुद्ध आत्मा को और उत्कर्ष पर ले जाने वाले। पर्युषण पर्व के इस समय में अपनी आत्मशुद्धि के बाद नवपद की आराधना करते हुए और उज्जवलता की ओर बढऩा है।
दोपहर ३ से ४ बजे तक कल्पसूत्र, सायं 6.30 बजे से प्रतिक्रमण और रात्रि ८ बजे से इतिहास के सुनहरे पन्नों का कार्यक्रम हुआ।
१२ सितम्बर, बुधवार को स्वाध्याय संघ की शुरुआत करने वाले प्रवर्तक श्री पन्नालालजी महाराज की जन्म जयंती का कार्यक्रम रहेगा। १५ सितम्बर को नवपद एकासन का कार्यक्रम होगा।