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चार शरणागति स्वीकार करने से कर्म के फल हल्के होते हैं – आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीजी

चार शरणागति स्वीकार करने से कर्म के फल हल्के होते हैं – आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीजी

किलपाॅक जैन संघ में विराजित योगनिष्ठ आचार्य केशरसूरी समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी म.सा. ने प्रवचन में कहा कि अपने हित की बात सुनकर उसे स्वीकार कर लेनी चाहिए। इसके लिए कुछ बलिदान भी करना पड़े तो वह कर लेना चाहिए। आज की स्थिति यह है कि हम केवल सुख की बात स्वीकार करते हैं, हित की बात को नहीं। आप यदि सुनेंगे तभी स्वीकार करेंगे, स्वीकार करेंगे तभी आचरण में लाएंगे।‌ उन्होंने कहा कर्मोदय का असर हमारे ऊपर पड़ता है, तब हम दुःखी होते हैं।

आत्म शरणागति और परमात्म शरणागति से कर्म के फल हल्के होते हैं।‌ उस समय अरिहंत, सिद्ध, साधु, धर्म, इन चार की त्रिकाल शरणागति लेनी चाहिए। इससे कर्मों के नए अनुबंध भी बंद हो जाते हैं। जब हमारे पास दुःख आता है तो यह समझना कि कर्मसत्ता ने छोटा दुःख दिया है, बड़े दुःख को रोक लिया है। ‌उन्होंने कहा प्रभु कभी दुःख देते नहीं हैं, वे दुःख का निवारण करते हैं।

उन्होंने कहा जब अरिहंत की शरणागति लो, उस समय अरिहंत के वैभव, उपकार, और सद्गुणों को अपने हृदय में देखना है। जब तक प्रभु की भक्ति करते-करते प्रभु के गुणों का स्पर्श नहीं होता, तब तक आत्मा में अध्यात्म की क्रांति नहीं आती। अध्यात्म की ऊर्जा अंदर की आत्मा से प्रकट होती है। आकर्षण आदि बाहर से प्रकट होते हैं। परमात्मा के समवसरण में बैठने मात्र से व्यक्ति के मन में मिथ्यात्व के अंश एवं संशय दूर हो जाते हैं। परमात्मा के सद्गुण का मतलब है परमात्मा की शक्ति का विनियोग। धर्म यानी क्रिया, कर्तव्य, व्यवहार, स्वभाव। वस्तु का स्वभाव धर्म है। मात्र मिट्टी के अंदर अनंत धर्म है। तप करना आदि व्यवहार धर्म है। जहां पर धर्म की कुछ फॉर्मेट दिखती है, वह क्रिया है। क्रिया की शोभा व्यवहार से है और व्यवहार की शोभा स्वभाव से है।

उन्होंने बताया कि धर्म पांच प्रकार के होते हैं दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और उपचार यानी औपचारिक धर्म। औपचारिक धर्म सर्वश्रेष्ठ धर्म है, इससे भी पुण्य अर्जित होता हैं। गुरुतत्व परमात्मतत्व की अपेक्षा से भी बड़ा है। परमात्मसेवा के लक्ष्य का मार्ग गुरुसेवा से शुरू होता है। उन्होंने कहा हमारे अंदर परोपकार करने की भी कला होनी चाहिए। साधु की हर चर्या में वह अपना स्वभाव समान ही रखता है।‌ स्वभाव ही साधु का धर्म है। ज्ञानी कहते हैं यदि आप व्यवहार धर्म तक सीमित रह जाओगे, तो स्वभाव धर्म को कब पाओगे? स्वभाव धर्म की प्राप्ति के बाद ही मोक्ष की सीढ़ी पर कदम रख पाएंगे।

मुनि धन्यप्रभ विजयजी ने कहा कि हम दूसरों के लिए जो भी खराब लिखते हैं, विचारते आते हैं, बोलते हैं, वह सभी कई गुना बनकर हमको खराब फल देते हैं। इसलिए हमें विचार को निर्मल बनाना है, वचन को मधुर बनाना है और व्यवहार को औचित्य वाला बनाना है। यदि हमें भविष्य को वरदानस्वरुप और उज्जवलमय बनान‌ा है तो हमारे उपकारी माता, पिता, गुरु की कही हुई हित की बातों को स्वीकार करना होगा। रविवार प्रातः 5.30 बजे सूरिमंत्र महापूजन का आयोजन होगा। उसके बाद प्रवचन के दौरान सूरिमंत्र वंदनावली का भव्य आयोजन होगा।

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