(no subject)
सुंद
ेशा मुथा जैन भवन कोंडितोप चेन्नई में जैनाचार्य श्रीमद् विजय रत्नसेनसुरीश्वरजी म.सा ने कहा कि:- भूतकाल मे अनंत अरिहंतो की आत्माओं ने हमारे आत्मकल्याण की भावना की हैं, फिर भी हमारी आत्मा का कल्याण नहीं हुआ हैं, उसमें अपनी अयोग्यता और अपात्रता ही कारण है ।
परमात्मा तो जगत के सभी जीवों को सदा के लिए परम सुखी बनाना चाहते हैं । परंतु जीवात्मा की योग्यता भेद के कारण सभी आत्माओं का कल्याण नहीं होता हैं । जैसे सुर्य सभी को प्रकाश देता हैं, परंतु उल्लु सूर्योदय होते ही अपनी आंखे बंदकर देता हैं तो उसे सुर्य का प्रकाश लाभ नहीं करता हैं ।
अथवा वर्षा सभी के लिए एक समान बरसती हैं, परंतु जो व्यक्ति अपना बर्तन सीधा न रखे , उसे पानी की प्राप्ति नहीं हो सकती हैं । वैसे ही करुणानिधान अरिहंत परमात्मा जगत के सभी जीवों के कल्याण की शुभ भावना करते हैं, तथा केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद जगत को आत्म कल्याण का मार्ग भी बताते हैं, फिर भी जिस आत्मा को स्वयं के आत्म कल्याण की चिंता नहीं जगी हो, उसका आत्मकल्याण कभी नहीं हो सकता ।
पुर्व जन्मों के पुण्यकर्म फलस्वरुप आत्मकल्याण के योग्य मनुष्य जन्म , पंचेन्द्रिय परिपूर्णता , दीर्घ आयुष्य, निरोगी शरीर , आर्यदेश अनुकूल परिवार एवं देव गुरू और धर्म की सारी सामग्रियाँ हमें प्राप्त हूई हैं । इन सारी सामग्रियाँ की सच्ची सफलता योग्य पुरुषार्थ में हैं । जब तक हमे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती तब तक देव , नरक , तिर्यंच और मनुष्य रुपी चारो गतियो में हमें भटक रहे हैं ।
असंख्य काल का आयुष्य भी एक दिन पूरा हो जाता हैं, अतः देव गति का जन्म भी मात्र भटकाव हैं । इस भटकाव से जब तक हमें कंटाला खेद या दुःख का अनुभव नहीं तब तक हमें अपने आत्मकल्याण की चिंता नहीं हो सकती हैं । और इस चिंता के बिना आत्म कल्याण कैसे होगा ?