रायपुरम जैन भवन में विराजित पुज्य जयतिलक जी मरासा ने फरमाया प्रसंग है चारित्र श्रीपाल का :- यह चारित्र हमें बताता है कि अशुभ कर्मों पर विजय कैसे प्राप्त करें! अपने मार्ग को प्रशस्त करने का मार्गदर्शन है। संसार में लौकिक बाधाओं का आना लगा रहता है उन बाधाओं को दूर कर आत्मा का भी उत्थान करना। कठिन मार्ग में साथ धर्म ही देता है। निकाचित कर्म हो निहित कर्म को दूर करने में धर्म ही समर्थ है। अशुभ कर्मों को दूर करने में शारीरिक बल के साथ धर्म बल भी आवश्यक है!
बाल्य काल में ही श्रीपाल को अशुभ काम का उदय हो गया। किंतु इन सभी अशुभ कर्मा को क्षय करने में आराधना के साथ तप को जोड़ लिया तो हजार गुण कर्म को क्षीण कर लिया। तन मन से धर्म को अंगीकार कर लिया तो सभी कष्ट दूर होने लगे।
जब परदेश में भी विपत्ति आयी तो नवपद से स्वयं की विपत्ति तो दूर हुई और अन्य के कष्टों को भी दूर किया! धवल सेठ श्रीपाल जो नौकरी देना चाहता किंतु एक करोड़ स्वर्ण मुद्रा नहीं दे सकता ! श्रीपाल जी कहते है मैं भी तुम्हारे साथ देशान्तर चलूं और अपने भाग्य को आजमाना चाहता हूँ! आपके जहाज के महिना का किराया सौ मुहरे – दूंगा ! धवल सेठ ने सोचा पुण्यवान जीव है साथ में रहे तो भला ही होगा ! और ऊपर से सौ मुहरे भी मिलेगी !
वचन बद्ध होकर श्रीपाल जी जहाज के खिड़की के पास जाकर बैठ गया। समुद्र नज़ारे को देखते हुए आगे बढ़ा, बर्बर देश आ रहा है वहाँ से ईधन पानी आदि भरकर आगे चलेंगे। सुभट ईधन, जल आदि लेने गये! लोगों की आवाज सुनकर बर्बर देश का राज्य कर वसुलने आ पहुंचे। किन्तु धवल सेठ अपने सुभट के बल पर बात सुनी अनसुनी कर दी! जब खेंचातान हो गई तो युद्ध छिड़ गया ! बर्बर देश का राजा स्वयं युद्ध क्षेत्र में आ गया। राज्य सैनिकों के सामने सेठ के सुभट ठहर नहीं पाये! और सेठ को बन्दी बनाकर पेड पर उल्टा लटका दिया! और माल को अपने अधीन में कर लिया।