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चारित्रमोह के कारण यह अव्रत आस्रव होता है

क्रमांक – 40

. *तत्त्व – दर्शन*

 *🔹 तत्त्व वर्गीकरण या तत्त्व के प्रकार*

*👉जैन दर्शन में नवतत्त्व माने गये हैं – जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष।*

*🔅 आश्रव*

*यहां आश्रव के बीस भेदों का विवेचन किया जा रहा है :*

*✨2. अव्रत आस्रव*

*👉 अप्रत्याख्यानमविरतिः। चारित्रमोह के कारण यह अव्रत आस्रव होता है। चारित्र मोह जब तक सक्रिय रहता है तब तक अंश रूप में या पूर्ण रुप में पापकारी प्रवृत्ति के त्याग की भावना नहीं रहती। अर्थात् मिथ्यात्व आदि पापकारी प्रवृत्तियों का त्याग ने कर पाना ही अव्रत है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि पांच आस्रव सेवन का अत्याग ही अव्रत आश्रव है। अव्रत आस्रव देशव्रत और सर्वव्रत दोनों का बाधक है।*

*अत्याग भाव और पौद्गलिक सुखों के प्रति अव्यक्त लालसा अव्रत आस्रव है। जीव की आशा-वांछा अव्रत है और यह चारित्र मोहनीय कर्म का औदयिक भाव है। अव्रत आश्रव होने पर सर्वव्रत या सर्वचारित्र का अभाव बना रहता है। रवि-रजनी की तरह अव्रत और सर्व चारित्र साथ में नहीं होते हैं।*

*क्रमशः ………..*

*✒️ लिखने में कोई गलती हुई हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं।*

विकास जैन।

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