कोयम्बत्तूर आर एस पुरम स्थित आराधना भवन में चातुर्मासिक प्रवचन की अमृत धारा बरस रही है, जैन दिवाकर दरबार में विमलशिष्य वीरेन्द्र मुनि नें धर्म सभा को संबोधित करते हुवे कहा कि भगवान महावीर स्वामी की स्तुति करते आर्य सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जंबू स्वामी से कहते हैं। हे आयुष्यमान आर्य जम्बू तुम प्रभु महावीर स्वामी के विषय में क्या जानना चाहते हो। आर्य जंबू स्वामी ने अपने गुरु देव पांचवे गणधर श्री सुधर्मा स्वामी से पूछा – अहा – देखिये जम्बू स्वामी में कितना विनय है – क्या कह रहे हैं मेरे ( अपने )गुरुदेव – आज तो हम देखते हैं गुरु को गुरु बोलते हुवे भी जीभ लड़खड़ाती है। गुरु के प्रति शिष्य का कितना विनय भाव होना चाहिये, आणाए धम्मो – गुरु की आज्ञा में ही धर्म है!
गुरु कहे तो उठे बैठे आये जाये सोये , अर्थात हर कार्य के लिये गुरु की आज्ञा का पालन ही शिष्य का कर्तव्य होता है ! और जो शिष्य गुरु की आज्ञा का पालन करता है तहे दिल से तो उसका आत्म कल्याण निश्चित है ! गुरु कहे तो बोले – ऐसे ही थे शिष्य जम्बूस्वामी – तो गुरु से विनय के साथ प्रश्न, कर रहे थे- गुरुदेव – में नगर में आहार पानी के लिये जाता हूं तो रास्ते में श्रमण साधु ब्राह्मण गृहस्थ एवं अन्यतिर्थी मुझे पूछते हैं कि इस संसार समुद्र से पार करने वाले एकांत हितकारी और अनुपम धर्म की स्थापना करने वाले श्रेष्ठ ज्ञान वाले कौन है !
इस संसार रूपी भयंकर जंगल में भटकते हुई आत्माओं को 10 द्दष्टांत मिलना दुर्लभ है , ऐसा मानव का भव मिलना अत्यंत मुश्किल है – जैसे आर्य देश उत्तमकुल, लंबी आयु , आरोग्य शरीर ,पूर्ण इंद्रिया अनुकूल सामग्री उससे भी ज्यादा कठिन परम पुण्योदय होता है तभी वीतराग प्रनित ( कहा हुआ ) धर्म प्राप्त होता है ! जगत के जीवो को सर्वज्ञ कथित धर्म ही हमारी आत्मा के लिये कल्याणकारी और मंगलकारी है – वितराग प्रभु ने समस्त जीवो के हितकारी धर्म की परुपणा की है , अन्य धर्म में होम यज्ञ बलि आदि में धर्म माना परंतु जैन धर्म एक ऐसा विश्व धर्म है जो समस्त जीवो को जीने का अधिकार देता है !
जैसे बीमार होने पर डॉक्टर से दवाई इंजेक्शन आदि लेते हैं जिससे बीमारी दूर होती है , डॉक्टर तो सिर्फ शरीर का रोग दूर कर सकता है पर ,आत्मा पर रहे हुए आठ कर्म रूपी बीमारी को दूर नहीं कर सकता परंतु धर्म रूपी औषधि का सेवन (अर्थात जीवन में उतारने) करने से आत्मा पर रहा हुआ कर्म समूल रूप से नष्ट हो जाते हैं।