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ज्ञान वाणी

चातुर्मासिक प्रवचन की अमृत रस की सरिता: वीरेन्द्र मुनि

चातुर्मासिक प्रवचन की अमृत रस की सरिता: वीरेन्द्र मुनि

कोयम्बत्तूर आर एस पुरम स्थित आराधना भवन में जैन दिवाकर दरबार में विमलशिष्य वीरेन्द्र मुनि नें धर्म सभा को संबोधित करते हुए कहा कि आर्य सुधर्मा स्वामी से जंबू स्वामी के पृच्छा करने पर वीर स्तुति की रचना की है ।

27 वी गाथा में फरमाते हैं कि – संसार में अनेक मत मतान्तरों का प्रचार है जिसमें कोई क्रिया से मोक्ष मानते हैं तो कोई अक्रियावादी है । कोई मात्र ज्ञान से ही मुक्ति मानते हैं कोई विनय में ही मोक्ष मानते हैं कोई तो अज्ञान को ही श्रेष्ठ मानते हैं । ये चारों दर्शनों का भेद इस प्रकार है ( 1 ) क्रियावादि का 180 भेद है ( 2 ) अक्रियावादी के 84 भेद है ( 3 ) विनयवादी के 32 भेद है और अज्ञान वादी के 67 भेद है । ये सभी मिलकर के 363 पाखंडी के मत कहलाते है । ये सभी ऐकांतवादी है । हम जब इन सभी की तुलना करते हैं तो भगवान महावीर स्वामी का स्यादवाद अनेकांत रूप से और पाखंडी मत का स्वरूप समझा के भगवान ने धर्मों का स्वरूप समझा करके इस पाखंडी मत को यथार्थ कहा है ।

इसी प्रकार समझा करके स्यादवाह की स्थापना की है और स्वयं संयम में लीन बने थे भगवान ने मोक्ष प्राप्ति के लिये उपदेश दिया था । भगवान ने मात्र उपदेश ही नहीं दिया परंतु स्वयं संयम का पालन किया दीहराय दीर्घरात्रि तक यहां पर अहोरात्रि के स्थान पर दीहरायं शब्द का प्रयोग क्यों किया । इसके जवाब में कहा कि गणधर देव अत्यंत निपुण और बुद्धिमान है । इस पुच्छिसुणं के भावों को तीनों काल में बनने वाले तीर्थंकर की स्तुति रूप है । तीर्थंकरों का जन्म मध्य रात्रि में ही होता है दीर्घ लंबे समय का आयुष्य का अंत न आवे तब तक अर्थात भगवान महावीर स्वामी के 72 वर्ष पूर्ण होने पर आखिरी रात्रि में आखिरी श्वासों श्वास तक भगवान ने संयम का पालन किया था बाकी केवलीगम्य है ।

28 वीं गाथा में आगे फरमाते हैं कि भगवान नेआठों कर्मों को क्षय करने के लिये रात्रि भोजन सहित स्त्री संसर्ग और 18 प्रकार के पापों का त्याग करके घोर तपस्या करते थे । इसी तरह आलोक परलोक तथा मनुष्य लोक नरकादी लोक के स्वरूप को सर्व प्रकार से जान करके प्रभु ने सभी पापों को क्षय कर दिया ।

29 वीं गाथा में कहा कि सम्यक प्रकार से कहा – अर्थ और पद के साथ विशुद्ध अरिहंत भगवान के द्वारा कहे हुए और धर्म को सुनकर के उस पर पूर्ण रूप से श्रद्धा करते हैं । वह आयु रहित और कर्मों से रहित होकर के सिद्ध हो जाता है और कभी कर्म रह जाते हैं तो इंद्रादी पद को प्राप्त करता है यानी कि देवलोक में जाता है ।

 *इतिश्री लिखने में कुछ गलत आगया हो तो मिच्छामी दुक्कड़म*

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