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घृणा पापी से नहीं पाप से करनी चाहिए: जयधुरंधर मुनि

घृणा पापी से नहीं पाप से करनी चाहिए: जयधुरंधर मुनि

चेन्नई. वेपेरी स्थित जय वाटिका मरलेचा गार्डन में विराजित जयधुरंधर मुनि ने कहा सतसंगत से जीवन का कण-कण खिल जाता है। पापी आत्मा भी सत्संग से पावन बन जाती है। सत पुरुषों का संग दानवता की ओर बहने वाली शक्ति की धारा को मानवता की और मोडती है। दूध में मिला हुआ जल भी दूध ही बन जाता है जबकि शराब की बोतल में भरा हुआ पानी भी शराब ही लगता है।

अच्छे वातावरण में रहने से स्वयं में अच्छाई आएगी बुरे लोगों के साथ बैठेंगे तो जीवन में बुराई आएगी। दीपक में तेल होने पर भी जब तक ज्योतिर्मान प्रदीप से उसका संयोग नहीं होता तब तक उसमें ज्योति नहीं आ सकती।

इसी प्रकार सत्पुरुष के समागम के बिना सम्यक ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता।

जैसा कार्य और वातावरण होता है वैसा ही रंग जीवन में आता है।

महान व्यक्तियों के साथ रहने वाला स्वयं महान बन जाता है। योवन संपत्ति सत्ता और अविवेक यह चारों अगर मिल जाते हैं तो अनर्थ हो जाता है। निरंकुश घोड़ा स्वयं भी कष्ट पाता है और दूसरों के लिए भी कष्ट कष्टदायक सिद्ध होता है। मनुष्य की यदि आत्मा शक्ति जागृत हो जाती है तो देव शक्ति को भी परास्त किया जा सकता है।पश्चाताप करने से पापों से छुटकारा प्राप्त किया जा सकता है।

घृणा पापी से नहीं पाप से की जानी चाहिए क्योंकि पापी व्यक्ति में तो परिवर्तन आ सकता है।

साधु साध्वी रुपी जीती जागती प्रतिमा का दर्शन करने मात्र से महान पुण्य का लाभ प्राप्त हो सकता है ।

दान तप धर्म आराधना प्रकट में की जानी चाहिए ताकि दूसरों को भी प्रेरणा प्राप्त हो सके।

पाप कार्य एकांत में किया जाते हैं क्योंकि वह दूसरों के लिए अनुकरणीय नहीं होते हैं।

पाप क्षेत्र में किए हुए कार्य आडंबर कहलाते हैं जबकि पुण्य क्षेत्र में किए गए सद्कार्य धर्म की प्रभावना करने वाले होते हैं।

जयपुरन्दर मुनि ने कहा धार्मिक क्रिया करना जितना श्रेष्ठ होता है उतना ही दूसरों से करवाना और करने वाले की अनुमोदना करना श्रेयस्कर होता है।

जो जिसकी अनुमोदना करता है वह वैसा ही बन जाता है ।

पाप कार्य की अनुमोदना करने से पाप कर्मों का बंध होता है जबकि धर्म दलाली करने से स्व और पर दोनों को लाभ प्राप्त होता है ।

प्रयोजन के पाप राई जितने होते हैं तो बिना प्रयोजन के पाप पहाड़ जितने होते हैं ।अतः साधक को अज्ञानता एवं अविवेक के कारण होने वाले अनावश्यक पापों से बचना चाहिए। दूसरों के सद्कार्यों की अनुमोदना करने से स्वयं के अंतराय टूट जाती है और सद्कार्यों को करने में तत्परता बढ़ जाती है।

इससे पूर्व जयकलश मुनि ने अंतागढ़ सूत्र का मूल वाचन किया। धर्म सभा में लगभग 40 तपस्वियों ने 7-8 उपवास के प्रत्याख्यान ग्रहण किया। संवत्सरी के अवसर पर मध्यान्ह 2:30 बजे से भाव आलोचना कार्यक्रम भी रखा गया है। बुधवार को सामूहिक क्षमापना का कार्यक्रम प्रातः 10:30 बजे से होगा।

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