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घर को आबाद करना या बर्बाद करना नारी पर ही निर्भर: जयधुरंधर मुनि

घर को आबाद करना या बर्बाद करना नारी पर ही निर्भर: जयधुरंधर मुनि

वेपेरी स्थित जय वाटिका मरलेचा गार्डन में विराजित जयधुरंधर मुनि ने रविवार विशेष प्रवचन में कहा वर्तमान युग में नारी अबला नहीं अपितु सबला है। नारी शक्ति यदि ठान ले तो असंभव कार्य को भी संभव किया जा सकता। नारी घर की धुरी होती है। नारी चाहे तो घर को स्वर्ग भी बना सकती है और नरक भी।

यदि घर में सास बहू देवरानी – जेठानी, ननंद – भाभी में आपसी सामंजस्य ना हो तो उस घर में शांति नहीं रह सकती। हर नारी को एक आदर्श ग्रहणी का दायित्व निभाते हुए परिवार को एकजुट रखने का प्रयास करना चाहिए। सास भी बहू को बेटी और बहू यदि सास को माँ मान ले तो कभी घर में टकराव की स्थिति पैदा नहीं होगी। घर में अशांति और कलह का मूल कारण नारी ही होती है।

घर को आबाद करना या बर्बाद करना नारी पर ही निर्भर होता है। नारी करुणा, धीरता, मधुरता, सहनशीलता और वात्सल्य की प्रतिमूर्ति होती है। जिस घर में नारी का आदर नहीं होता, उस घर में सुख समृद्धि एवं शांति का वास भी नहीं रह सकता । हर पुरुष की सफलता के पीछे किसी ना किसी नारी का हाथ होता है।

नारी एक नारायणी के रूप में पुरुषों को सतपथ पर ले जाने वाली हो सकती है। धर्मपत्नी वही कहलाती है जो अपने पति को धर्म की ओर अग्रसर करें। नारी अगर प्रयास करें तो एक पत्थर दिल व्यक्ति में भी परिवर्तन ला सकती है। मुनि ने एक दृष्टांत के माध्यम से हर नारी को आदर्श धर्म पत्नी का कर्तव्य निभाने हेतु प्रेरित किया।

इस अवसर पर जयपुरंदर मुनि ने कहा जीवन के सम्यक निर्वाह के लिए धन और धर्म दोनों जरूरी है। जिस प्रकार रेलगाड़ी दो पटरियों पर चलती है, उसी प्रकार जीवन की गाड़ी धन और धर्म के सामंजस्य से ही चल सकती हैं। व्यक्ति को मितरागी कि नहीं वीतरागी बनने के लिए तत्पर बनाना चाहिए। धन जीवन का साथी नहीं अपितु साधन है।

उन्होंने धन और धर्म की तुलना करते हुए कहा धन की आसक्ति दुर्गति का कारण है, जबकि धर्म सद्गति की ओर ले जाता है ।धन की सुरक्षा करनी पड़ती है, वही धर्म जीवों की रक्षा करता है ।

धन से खाना मिल सकता है लेकिन भूख नहीं, पलंग मिल सकता है पर नींद नहीं और धन से पुस्तक मिल सकता है लेकिन ज्ञान नहीं। धन ही जीवन का ध्येय ही नहीं होना चाहिए। धन कमाने के साथ धर्म का भी आलंबन लेना चाहिए । धन हर संभव प्रयत्न करने के बावजूद भी स्थिर नहीं रहता।

लक्ष्मी का स्वभाव चंचल होता है। कोई भी व्यक्ति एक पैसा भी अपने साथ अगले भव तक नहीं ले जा सकता है। धन में भागीदारी होती है , जबकि धर्म को कभी बांदा नहीं जा सकता। धन की आसक्ति व्यक्ति को बर्बाद ही करेगी । धन से भी ज्यादा श्रेष्ठ धर्म होता है ।

जो व्यक्ति धर्म के मर्म को समझ कर उससे उसके महत्व को जान लेता है वही उसे आत्मसात करता है। आज सारा दारोमदार पैसे पर निर्भर होने से व्यक्ति भौतिकता की चकाचौंद में फँसता जाता है। प्रातः बच्चों के लिए जयमल जैन अध्यात्मिक ज्ञान ध्यान शिविर का भी आयोजन किया गया।

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