बेंगलुरु। आचार्यश्री देवेंद्रसागरसूरीश्वरजी ने शनिवार को अपने प्रवचन में कहा कि जीवन प्रगति में मनुष्य का अहंकार बहुत बड़ा बाधक है। इसके वशीभूत होकर चलने वाला मनुष्य प्रायः पतन की ओर ही जाता है। श्रेय पथ की यात्रा उसके लिये दुरूह एवं दुर्गम हो जाती है।
उन्होंने कहा कि अहंकार से भेद बुद्धि उत्पन्न होती है, जो मनुष्य को मनुष्य से ही दूर ही नहीं कर देती, अपितु अपने मूलस्रोत परमात्मा से भी भिन्न कर देती है। परमात्मा से भिन्न होते ही मनुष्य में पाप प्रवृत्तियाँ प्रबल हो उठती है।
आचार्यश्री ने कहा कि रावण की विद्वता संसार प्रसिद्ध है। उसके बल की कोई सीमा नहीं थी। वह एक महान बुद्धिमान तथा विचारक व्यक्ति था। लेकिन उसके अहंकार ने उसका पतन किया।
उन्होंने कहा कि वैसे तो अहंकारी कदाचित ही उदार अथवा पुण्य परमार्थी हुआ करते है। लोक-परलोक का कोई भी श्रेय प्राप्त करने में अहंकार मनुष्य का सबसे विरोधी तत्व है। लौकिक उन्नति अथवा आत्मिक प्रगति पाने के लिए किये जाने वाले प्रयत्नों में अहंकार का त्याग सबसे प्रथम एवं प्रमुख प्रयत्न है।
इसमें मनुष्य को यथाशीघ्र तत्पर हो जाना चाहिए। अहंकार के त्याग से उन्नति का मार्ग तो प्रशस्त होता ही है साथ ही निरहंकार स्थिति स्वयं में भी बड़ी सन्तोष एवं शाँतिदायक होती है।