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देशा मुथा जैन भवन कोंडितोप चेन्नई मे जैनाचार्य श्री मद् विजय रत्नसेन सुरीश्वरजी म.सा ने कहा कि:- जन्म- जन्मों के पुण्योदय से साक्षात् तीर्थंकर परमात्मा का संयोग होता है वे लोग अति पुण्यशाली है जिन्हे साक्षात् तीर्थंकर परमात्मा का आलंबन मिला है एक ओर हमारा दुर्भाग्य है कि हमे साक्षात तीर्थंकर परमात्मा का संयोग नही हुआ है तो दुसरी ओर हमारा सबसे बडा सदभाग्य है कि हमें तीर्थंकर परमात्मा द्वारा बताए मोक्ष के मार्ग स्वरुप धर्म प्राप्त हुआ है ।
भव- संसार में भटकते धर्म की सामग्री और देव गुरू का आलंबन मिलना अति कठिन है । भले ही हमे साक्षात परमात्मा का संयोग नहीं हुआ है फिर भी स्थापना रुप में प्रभु की प्रतिमा, उनका साक्षात्कार कराती है । तथा उनके धर्मोपदेश को बताने वाले गुरू भगवंत हमें साक्षात् प्राप्त हुए है ।
वितराग – तीर्थंकर देव और निर्गंथ – पांच महाव्रत धारी गुरू के आलंबन से इस पंचम काल मे भी हम मोक्ष मार्ग की आराधना साधना कर सकते है । मोक्ष मार्ग की प्रेरणा हमें गुरू भगवंत के माध्यम से ही मिलती है । गुरू भगवंत अपनी वाणी रुप पानी से हमारे जीवन में धर्म संस्कार का बगीचा खिलाते है।
देव और गुरू के प्रति विनय -बहुमान से हम संसार सागर से पार उतर सकते है। जैसे संसार के कार्यों में हमें बडो का विनय करना चाहिए। उनके अविनय से हमारे कार्य में सफलता प्राप्त नहीं होती । वैसे ही देव गुरू के अविनय से हमारी आत्मा का उद्धार नहीं हो सकता । देव गुरू और धर्म में गुरू का पद बीच में है । गुरू की हमे सच्चे देव और धर्म का स्वरुप बताते है ।
गुरू की आज्ञा का पालन शिष्य का प्रधान कर्तव्य है। जो गुरू की आज्ञा का पालन नहीं करता वह परमात्मा की आज्ञा का पालन कैसे कर सकेगा ? अतः उनकी आज्ञा पालन एवं भक्ति में सदा जागृत रहना चाहिए।