साध्वी जी ने बताया इसलिए धार्मिक मंत्रों का नहीं हो रहा असर
गायत्री मंत्र, नवकार मंत्र और अन्य धार्मिक मंत्र पहले जितने असरकारक होते थे आज उनका उतना प्रभाव देखने को नहीं मिलता। इसका क्या कारण है? क्या मंत्रों की साम्र्थता और प्रभाव में कोई कमी है? अथवा अन्य कुछ कारण हैं। मेरे मत में इनके प्रभाव में कोई कमी नहीं है। मंत्र दीक्षा गुरू आज्ञा और श्रद्धा के साथ ली जाए तो आज भी इनके चमत्कारिक प्रभाव हमें देखने को मिलेंगे।
उक्त वक्तत्व साध्वी नूतन प्रभाश्री जी ने स्थानीय पोषद भवन में आयोजित एक विशाल धर्मसभा में व्यक्त किए। उन्होंने स्वाध्याय की महत्ता पर विस्तार से प्रकाश डाला। साध्वी जयश्री जी ने शास्त्र का वाचन करते हुए संदेश दिया कि संसार में रहकर भी संसार से नहीं जुडऩा चाहिए। जिस तरह से कमल कीचड़ में रहकर भी कीचड़ से दूर रहता है, उसी तरह संसार में हमें निर्लिप्त भाव से रहना चाहिए और सुख दुख को समभाव से ग्रहण करना चाहिए। उन्होंने सुबाहू कुमार का उदाहरण देते हुए बताया कि उन्हें दर्पण देखकर संसार की असारता का बोध हो गया था।
धर्मसभा में भगवान महावीर द्वारा वर्णित छह आंतरिक तपों की साध्वी नूतन प्रभाश्री जी विस्तार से व्याख्या कर रही हैं। नवे आंतरिक तप वैयावृत्य (सेवा) का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया कि इंसान को सबसे पहले अपने माता-पिता की सेवा करना चाहिए। इसके बाद सेवा के हकदार आपके गुरू हैं। माता-पिता जहां जन्म देते हैं वहीं गुरू हमें जीवन देते हैं। संत जीवन की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि शिष्य चाहे कितना भी विद्वान, प्रसिद्ध और ज्ञानी हो जाए, लेकिन उसे सबसे पहले अपने गुरू की सेवा की ओर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। बेश परिवर्तन से काम नहीं चलेगा, बल्कि जीवन में भी परिवर्तन होना चाहिए। संसार में रहने वाले प्राणियों को संदेश देते हुए उन्होंने कहा कि अपने माता-पिता और गुरू की तन, मन और यदि धन हो तो इससे सेवा करना चाहिए।
माता-पिता और गुरू की सेवा के बाद आपकी सेवा के हकदार वे हैं जिन्हें सेवा की अपेक्षा है। उन्होंने कहा कि भूखों को खाना खिलाना, प्यासे को पानी पिलाना, बीमार को औषधि दिलाना तथा उनका इलाज कराना, जानवरों को भोजन, पानी और उनकी देखभाल करना सेवा के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। इन्हें समाजसेवा की संज्ञा दी जा सकती है, लेकिन समाजसेवा तब ही जब आप माता-पिता और अपने गुरू की भी सेवा कर रहे हों। माता-पिता और गुरू आपकी सेवा से वंचित रहें और दूसरों की आप सेवा करें तो ऐसी समाजसेवा का कोई मूल्य नहीं है।
दिगम्बर परम्परा में स्वाध्याय पर विशेष ध्यान
साध्वी नूतन प्रभाश्री जी ने बताया कि जैन धर्म में स्वाध्याय को तप माना गया है। जैन धर्म में श्वेताम्बर (मूर्ति पूजक और स्थानकवासी), तेरापंथी, दिगम्बर धर्मावलंबी हैं, लेकिन दिगम्बर परम्परा में स्वाध्याय पर विशेष ध्यान दिया जाता है। उनके मंदिर और उपासरे में स्वाध्याय की ज्योति जलती रहती है। स्वाध्याय कैसे किया जाए? इसे स्पष्ट करते हुए साध्वी नूतन प्रभाश्री जी ने कहा कि पहले शास्त्रों का वांचन किया जाना चाहिए।
वांचन अर्थात गुरू के मुख से पढऩा। उन्होंने कहा कि मंत्र या शास्त्र यदि आप श्रद्धा से वांचेंगे तो उसका अलग ही प्रभावकारी अर्थ होगा। इस ढंग से शास्त्र वांचन से सफलता सुनिश्चित रूप से मिलेगी। इससे आपको अपने आपको पढऩे में भी मदद मिलेगी। स्वाध्याय का अर्थ खुद का अध्ययन ही है।