चेन्नई स्थित नॉर्थ टाउन में गुरुदेव जयतिलक मुनिजी का चातुर्मास प्रभावी रूप से चल रहा है। इसी अवसर का लाभ उठाते हुए Sagevaani.com ने जयतिलक मुनीजी के साथ धर्म और चातुर्मास से जुड़े मुद्दों पर साक्षात्कार किया। प्रस्तुत है उसके कुछ अंश।
प्रश्न: चातुर्मास का उद्देश्य?
उत्तर: एक जैन धर्म के अनुसार जैन साधु का एक वर्ष में बिहार के नव कल्प जिनेश्वर देवों ने फरमाएँ हैं। उन नव कल्पों से 8 कल्प 29 दिन का और एक नवां कल्प चार महिने का है। इस लिए साधु नवकल्प बिहारी कहलता है। चातुर्मास के चार महिने के अलावा 8 कल्प के अनुसार किसी भी धर्म स्थान में ज्यादा से ज्यादा 29 दिन ही रुक सकते है उस के बाद उस स्थान से विहार करना अनिवार्य है। यह आठ महिने गर्मि और सर्दी के दिनों में साधु-साध्वी को बिहार यात्रा करते रहते हैं। जब वर्षा काल के चार महिने तक एक ही स्थान में ठहरकर साधुगण अपनी आत्मा साधना कर कर्म रज मुक्त होने के लिए करते है। चार महिने एक ही स्थान में ठहरने का मूल उद्देश्य छः काय के जीवों की रक्षा के लिए है।
क्योंकि छ : काय की उत्पत्ति वर्षाकाल में बहुत ज्यादा हो जाती है जगह जगह पानी व किचड भी जमा हो जाता में बिहार यात्रा बहुत कठिन हो जाती है इसलिए साधक दृढ़ता से करते हुए उस काल साधना दृढता के साथ से किसी प्रकार की स्व-पर के लिए हित कारी कल्याणकारि संयम साधना हो सके और ज्यादा से ज्यादा तप त्याग स्वाध्याय- ध्यान अति धार्मिक क्रिया करने के लिए चातुर्मास बहुत ही जरूरी है। इस प्रकार चातुर्मास का मूल उद्देश्य छ काय के जीवों की रक्षा एवं कर्म निर्जरा कर मोठा प्राप्त करना है सभी प्रकार से कर्म बन्धनों से मुक्त होना है। यही मानव जन्म की सफलता है।
प्रश्न: चातुर्मास का लोगों पर असर :- संसार में मुख्यतः दो प्रकार के द्रव्य है जीन और अजीब।
उत्तर: जड़ और चेतन। जड़ का असर जड़ पर भी होता है और चेतन भा पर भी होता है। इसी प्रकार चेतन का असर जड़ पर भी होता है चेतन पर भी होता है। यह एक सांसारिक की स्वभाविक क्रिया है जिसे हम नकार नहीं सकते है। जैसे अचेतना का स्व असर अचेतन पर लोहा व चुम्बक अचेतन है फिर भी एक दूसरे का असर एक दूसरे पर पड़ता है नींद की गोली अचेतन और जीव चेतन है पर बीड की गोली का असर चेतन पर पड़ता है। पापड अचेतन है जहाँ पापहू का निर्माण हो रहा है वहां कोई मासिक बाधा वाली स्त्री आ जाए तो उसका असर पापड़ पर दिखाई देता है। इसी प्रकार चेतन का असर भी चेतन पर दिखाई देता है। जैसे मां अपने जन्म देने वाले पुत्र को देखने पर और संतान अपने माता को देखने पर माता एवं संतान का असर एक-दूसरे पर पड़ता है। इसी तरह चातुर्मास काल में जो धार्मिक क्रिया होती है उसे देखकर प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में उसका असर जरूर पड़ता है और उस वक्त उस व्यक्ति की सोई हुई चेतना जाग उठती है।
वह प्रभादी आत्मा का धर्म कार्य में पुरुषार्थ करना. करना प्रारम्भ कर देती है वह नींद में लीन चेतना ” जब जग जाती है तो उसे अपने सच्चे स्वरूप का भान हो जाने पर धर्म कार्य में रुचि लेने लगती है और जो कार्य, धार्मिक प्रवृति को करने में असमर्थ थी वही आत्मा धर्मर्मेलीन तलीन हो कर आत्म शुद्धि हेतु तप-त्याग स्वाध्याय सत्संग आदि में भाग लेकर संयम के मार्ग को भी अपना लेती है।
इस चातुर्मास काल में भी अनेक भबी आत्माओं ने अपने ममुष्य जन्म को समझकर धर्म प्रवृति में अपनी शक्ति के अनुसार भक्ति करने का पुराएरा प्रयास किया है। जिसका पुरा वर्णन करना मेरे लिए असंभव है। लेकिन जो लोग कभी धर्म की प्रवृत्ति करने से कतराते थे वे आज जप-तप-याग स्वाध्याय-दान-शील। व्रत- प्रत्याख्यान से अपने जीवन का व्यापन करते हुए दिखाई दे रहे है।
चातुर्मास काल के पश्चात भी श्रावक-श्राविका को अपने जीवन के प्रत्येक व्यवहार को धर्म के साथ में जोड़कर करना चाहिए ताकि हर व्यक्ति अगरह पापों का त्याग पूर्ण रूप से नहीं कर सकता है तो परवाह नहीं किन्तु ऐसी कोई प्रावृति ना करें जिससे संसार में अपने जीवन निवाई के लिए पांच स्थावर की मर्यादा करें ताकि उनका भी ज्यादा आरम्भ-स करना न पडे और अति आवश्यक की मर्यादा करके से मर्यादा के उपरान्त का त्याग कर दे। प्रसकाय के जीवों का पूर्ण रूप से हिंसा का त्याग कर देना चाहिए। स्थावर अर्थात्- पृथ्वी, पानी, अग्नि, और वायु वनस्पति की भर्यादित उपयोग करते हुए जीवन व्यापर करना और प्रसकाय – हलन चलन करने वाले जीवों की हिंसा का पूर्ण रूप त्याग करते हुए किसी भी कारण से निरपराधी जीव को किसी भी प्रकार वथ तो क्या कष्ट भी नहीं देना चाहिए और अपराधी जीव को भी क्षमा की भावना रखना। यदि किसी को सुधारने के लिए कुछ करना पंडतों 403 दे सकते हैं फिर भी मरण तुल्य वेदना नहीं देना चाहिए। इस प्रकार सभी प्रकार से मन से वचन से और काया से किसी भी प्राणी को दुःख न देते हुए इसी प्रकार धार्मिक अहिंसा आत्मक जीवन व्यापन करने की मेरी सलाह लोगो के लिए देता हूं और भविष्य अठारह पापों आदि
को पूर्ण रूप से त्याग कर पूर्ण रूप से हिसा का ब्याग करने की भावना को उत्पन करना हैl
प्रश्न: व्याख्यान सुनने से लोगों को जीवन में क्या लाभ मिलता है?
उत्तर: जब धर्म सभा में उपस्थितिश्रोता जिनवाणी (जिन प्रवचन) को श्रवण करता है तब उसे जीव किसी कहते है और अजीव किसी कहते है। पाप क्या है पुण्य क्या है और पाप का फल एवं पुण्य का फल जीव किस प्रकार भोगता है आदि जब सुनता है तो उसका अन्तर मन उस ज्ञान का चिन्तन मनन करने लगता है। तब उसका मन में निर्णय लेने का एक प्रकार विशेष प्रकार विचार उसे पाप से निवृत होने की प्रेरणा देता है और पुण्य का स्वरूप का बोध देकर उसे धर्म कार्य करने के लिए प्रेरित करता है तब वह संसार के काम-भोल से मन को हटाकर एकांत रूप से धर्म कार्य करने के लिए अपने आप को तैयार कर लेता है। एक दिन वह पूर्ण रूप पाप आदि सावध प्रवृति का ब्याग कर देता है या संसार में जब तक कर्त्तव्य से बन्धा है तब तक अल्प पाप की मर्यादा करते हुए अनासक्त भाव से जीवन निर्वाह करने का संकल्प कर मौका मिलने पर संसार का पूर्ण रूप से संसार का प्रयाग के साथ जीवन व्यापन की भावना रखता हुए हुआ कर्म निर्जरा करते हुए मोक्ष मार्ग का लाभ उठाता हुआ जीवन व्यापन करता है। एक दिन अष्ठ कर्म से आत्मा को मुक्त कर सिद्धावस्था को प्राप्त हो जाता है।
प्रश्न: गुरुवंदन और इश्वर बन्दन में अन्तर और समानता?
उत्तर: नवतत्त्व के ज्ञान देकर भग सागार से तारने वाले गुरु होते है जैन धर्म व्यवहार दृष्टि से अरिहंत आचार्य उपाध्याय और साथ गुरु रूप है। औपचारिक रूप से अरिहंत सर्वज्ञ सर्वदर्शी होते है अत: कि उन्हें भी भगवान के स्थान पर वे सुशोभित होते है। निश्चय में तो जब तक उनका निर्वाण नहीं हो जाता तब तक वे गुरु पद से शोभायमान होते है किन्तु उनका मोक्ष में जाना निश्चित है किसी प्रकार से संदेह नहीं है इसलिए उन्हे भगवान के नाम से संबोधित किया जाता है वास्तव में भगवान तो सिद्ध है क्योंने संसार से पूर्ण रूप से मुक्त होकर सिकशीला पर बिराजमान होते है अरिहंत का भी जन्म मुरन आदि र चक्र सिद्ध के समान पुन: संसार में जन्म नहीं होता है इसलिए वे व्यवहार से भले ही गुरु रूप हो पर निश्चय में सिद्ध और अरिहंत में समानता है। दोनों में अन्दर इतना है कि अरिहंत अभी तक कर्मो से पूर्ण रूप से मुक्त नही हुए उनके अब भी चार अघाती कर्म आत्मा से लगे है तब तलक वे संसारी कहलाते है और सिद्ध भगवान के चार धाती कर्म और चाद अधाती कर्म से मुक्त होकर निर्वाण को प्राप्त हो जान से वे अशरीरी, असंसारी मात्र आत्मा तत्व के रूप में सिद्धशीला पर विराजमान है उनका अब कभी भी पुन: संसार में जन्म नहीं होगा इसलिए वे सिद्ध भगवान कहलाते है।
जो, मात्र एक शुद्ध आत्मा है. इसलिए अरिहंत और सिद्ध को जैन धर्म भगवान (ईश्वर) के रूप में स्वीकार किया गया है इसलिए इनको गुणों के आकार का स्मरण कर वंदन नमन किया जाता है और आचार्य उपाध्याय और साथ अभी मोक्ष निश्चित नहीं हुआ है लेकिन भविष्य में ये भी कर्मक्षयकर के भगवान रूप बनेंगे इसलिए जब तक घाती अधाती कर्मों का अयु नही हो जाता। तुण तक संसार में रहते हुए मोस क प्राप्ति की साधना में रत है उनको कि तीन बार वन्दन किया जाता है। तीन बार इसलिए कि उनके ज्ञान दर्शन और चारित्र की आराधना मै रत है इसलिए उनको ज्ञान दर्शन और चारित्र को वन्दन को वन्दन किया जाता है। इसप्रकार से ईश्वर एवं गुरु की आत्मा की अपेक्षा से समान है और कर्मो की अपेक्षा से अन्तर है इसलिए बन्दन- नमन करते समय दृष्य से सभी में अन्तर समझकर वन्दन किया जाता है लेकिन भाव से दोनों में किसी प्रकार अन्तर नही है तो वन्दन नमन में भी दुष्य का से कोई भेद नहीं, सभी समानता देखकर बन्दन करते है और औपाचारिक रूप से भेद मानकर बन्दर नमन किया जाता है।