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गहरे में उतरने वाला संसार समुन्द्र से तर जाता है: जिनमणिप्रभसूरीश्वर म.

गहरे में उतरने वाला संसार समुन्द्र से तर जाता है: जिनमणिप्रभसूरीश्वर म.

गच्छाधिपति जिनमणिप्रभसूरिश्वरजी ने न्याय और नीति से धन, वैभव को प्राप्त करने की दी प्रेरणा

Sagevaani.com @चेन्नई; श्री मुनिसुव्रत जिनकुशल जैन ट्रस्ट के तत्वावधान में श्री सुधर्मा वाटिका, गौतम किरण परिसर, वेपेरी में शासनोत्कर्ष वर्षावास में धर्मपरिषद् को शनिवारीय प्रवचन में गच्छाधिपति आचार्य भगवंत जिनमणिप्रभसूरीश्वर म. ने कहा कि लम्बाई चौडाई कितनी भी हो, महत्वपूर्ण है गहराई का। कुआं कितना भी लम्बा चौड़ा हो, पानी तो गहराई से खोदने पर ही मिलता है। उसी तरह अध्यात्म के क्षेत्र में भी गहराई का महत्व है, जो गहराई से चिन्तन, मनन, विचार, करता है, वहीं बहुत कुछ पा सकता है।

गुरु भगवंत ने कहा कि संसार में चारों ओर देखा जाता है, जबकि धर्म में भीतर उतरा जाता है, गहरा उतरा जाता है। घने जंगल में आग लगने पर सभी प्रायः सभी प्राणी जल कर मर गए, लेकिन गहरे बिलों में उतरे चुहे बच गए। संसार भी ऐसा है जो बाहर ही बाहर घुमते है, वे जल जाते है और जो भीतर उतरेंगे वही बचेंगे, संसार समुद्र से तर जायेंगे। कई बार व्यक्ति का मौन अज्ञानता नहीं, अपितु जिज्ञासा दिखता है। अज्ञान और जिज्ञासा में अन्तर है। अज्ञान यानि घना अंधकार ; जिज्ञासा यानि अंधकार को तोड़ने का भाव। हमारे अन्तर में अज्ञानता का बोध है और उसको दूर करने के लिए जिज्ञासा पैदा होती है, तब उत्तर समाधान का विषय बनता हैं, आचरण का विषय बनता है, हमारी क्रियाओं का विषय बनता है और रुचि के साथ बनता है। वह क्रिया चाहे सामायिक की हो, स्वाध्याय की हो, कोई भी क्रिया हो, उसमें रस प्रकट होता है, आनन्द प्रकट होता है। लगता है यह क्रिया अनमोल है, बहुमूल्य है।

◆ निगोद से निर्वाण की हो यात्रा

शनिवारीय जिज्ञासाओं का समाधान करते हुए आचार्यश्री ने कहा कि हमारी यात्रा निगोद से निर्वाण की हो। जैसे सांप सिढ़ी के खेल में 99 वें न. पर आया हुआ खिलाड़ी नीचे आ सकता है, उसी तरह व्यक्ति भी अपनी असमझदारी की क्रियाओं से नीचे निगोद (वनस्पतिकाय) तक जा सकता है। हमारा इस मनुष्य जन्म में मात्र एक छलांग लगाने का लक्ष्य होना चाहिए, जिससे हम निर्वाण तक पहुंच सके। इस जन्म में हमारी क्षमता भी है, योग्यता भी है और अनुकूलता भी है, इस अमूल्य अवसर का हमें लाभ उठाना ही है। साधु जीवन में मर्यादा में रहता है, अनुकूल प्रतिकूल हर परिस्थिति में प्रकृति के अनुकूल कार्य करता हुआ, मन में प्रसन्न चित्त रहता है। वही कर्मों के कारण, क्रियाओं के कारण एक चतुर्दश पुर्वधारी साधु भी निगोद में जा सकता है। मनुष्य को भी अपना आचरण 99 न. की ओर का नहीं, अपितु एक छलांग लगा कर निर्वाण की ओर बढ़ने का हो। मिथ्यात्व का वह सांप नहीं डंसे, यही लक्ष्य रहे। देव, गुरु, धर्म के प्रति सच्ची श्रद्धा व्यक्ति के सम्यक्त्व को सुरक्षित रखती है।

◆ न्याय और नीति से परिपूर्ण हो हमारा धन

एक सच्चा श्रावक वह होता है जिसके पास प्राप्त धन, वैभव न्याय से प्राप्त हो। सरकार के नीति नियमों के विपरीत कमाया हुआ धन भी न्याय विरुद्ध ही माना जाता है। विशेष प्रेरणा देते हुए गुरुवर ने कहा कि इस बात का जरूर ध्यान रखें कि हमारे पैसों से किसी की पीड़ा नहीं झलकती हो, किसी के दर्द से भरा नहीं हो, जिसमें किसी जीवों की हिंसा न हो। अगर सामने वाले का व्यापार जैन सिद्धांतों, परम्पराओं से विपरीत का व्यापार हो, तो उसके साथ भी व्यापारिक व्यवहार नहीं होना चाहिए। स्वाभाविक रूप से संसारी श्रावक का जीवन पैसों के ईर्दगिर्द घूमता है, लेकिन हमारा लगाव, व्यवहार आसक्ति से पूर्ण नहीं हो। हमारा जीवन पैसों के पीछे भागने वाला नहीं अपितु गुणों से भरपुर होना चाहिए। सम्यक् दर्शन को पाना है, उसका पौषण करना है, मिथ्यात्व को मिटाना है।

समाचार सम्प्रेषक : स्वरू प चन्द दाँती

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