चेन्नई. गुरुवार को श्री एमकेएम जैन मेमोरियल, पुरुषावाक्कम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि एवं तीर्थेशऋषि महाराज का प्रवचन कार्यक्रम हुआ। उपाध्याय प्रवर ने जैनोलोजी प्रोक्टिकल लाइफ सत्र में कहा कि स्वयं अपराध स्वीकारने के बाद सुधरने के लिए प्रायश्चित दिया जाता है और यदि स्वयं सुधरना नहीं चाहता और दूसरा उसे सुधारने के लिए जो देता है वह दंड कहलाता है। प्रायश्चित लेने के बाद गलतियों की पुरानवृत्ति होने की संभावना शून्य हो जाती है। किसी की बुराई को जानकर भी उसे बुरा न समझने वाला व्यक्ति ही प्रायश्चित दे सकता है। प्रायश्चित देने वाले के मन में यदि उसके प्रति भावना बदल जाए, घृणा हो जाए तो उसकी नकारात्मकता प्रायश्चित देने वाले में आ जाती है। जो इससे बच सकता है वही किसी को प्रायश्चित दे सकता है।
जो प्रायश्चित गुरु बताते हैं, उसे अहोभाव से स्वीकार करें। गलती के लिए स्वयं की जिम्मेदारी लें तब ही आध्यात्म की साधना चलती है, यही सामायिक साधना का सूत्र है, यही आत्मा की शुद्धि की प्रक्रिया है।
आचारांग सूत्र में बताया कि अपरिग्रही बनने के बाद भी जैसे ही कुछ मिल जाता है यदि वह ग्रहण कर लेते हैं तो प्रतिज्ञा भंग हो जाती है और गुनाह और गहरा हो जाता है। एक बार ऐसा हो गया तो उसे उससे मोह हो जाता है और वह बार-बार प्रतिज्ञा भंग करता रहता है। उसके अन्तर में तो महसूस होता है कि मैं गलत कर रहा हंू लेकिन वह दलदल में धंसता जाता है। इस लोभ को कैसे पराजित करें। जब-जब मन में लोभ आए उसी पल मन में अलोभ की भावना का जन्म होना चाहिए। संसार और धन की अनर्थता को देखें, इसकी प्रकृति को जैसे-जैसे समझते जाएंगे तो अलोभ बढ़ता जाएगा। एक बार संयम ग्रहण करने के बाद पुन: पीछे मुडक़र देखना नहीं चाहिए। चक्रवर्तियों को पूरे सुख की छाया में रहते हुए भी, संसार और जीवन की नश्वरता का भान होने पर वैराग्य आता है। मानव सेवा अच्छी है लेकिन परम सत्य क्या है। स्वयं के कर्मों को स्वयं ही काटने के कारण वे दीक्षा लेकर वे मोक्ष में जाते हैं। लोभ को अलोभ से जीतने पर ही यह होगा।
आचारांग सूत्र में परमात्मा ने कहा है कि वही मुनि जिसके मन में अलोभ का साम्राज्य है, वह कभी सुविधाओं की तरफ देख ही नहीं सकता। क्रोध, मान, माया ये तीनों लोभ के कारण ही चलते हैं। लोभ से ही सारे झंझट होते हैं। लोभ नष्ट हो जाए तो ये तीनों स्वत: छूट जाएंगे। जो इससे नहीं बच सकेगा वह कहीं का भी नहीं रहेगा। इसलिए पाप का बोध होते रहना चाहिए। कर्म के उदय होने के बाद उनके अनुसार ही होगा, ऐसा नहीं है। किसी को उसकी अच्छाई याद दिलाई जाए तो वह अच्छाई की ओर प्रवृत्त होने लगता है। कर्म उदय होने के बाद भी उन्हें टाला जा सकता है।
श्रेणिक चरित्र में बताया कि श्रेणिक की रानी धारिणी की मनोकामना अभयकुमार के तप द्वारा पूरी होने का प्रसंग बताया। धारिणी रानी का पुत्र विवाहोपरांत दीक्षा लेता है और पहले ही दिन साधु जीवन से मन उचट जाता है। परमात्मा उसके पिछले जन्म की अच्छाई बताते हैं और वह पुन: संभल जाता है। पिछले जन्म का अन्तर का बोध कराने के बाद मन निर्मल हो गया और उसे जातिस्मरण ज्ञान हो जाता है। वह अपने मन भटकने, अनासक्ति और तिरस्कार का भाव आया उसका पश्चाताप मांगता है और पुन: दीक्षा लेने का कहता है। अन्तर की यात्रा करनी हो तो सबसे पहले प्रायश्चित करना होगा, अभ्यन्तर तप का सबसे पहला कार्य प्रायश्चित है। अपने जीवन में प्रायश्चित का मार्ग खुला करें।
मुनि तीर्थेशऋषि ने पापानुबंधी पाप और पापानुबंधी पुण्य के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि पुण्य करते हुए पुण्य का बंध करना चाहिए। हमें यह तय करना चाहिए कि दैनिक पापकारी क्रियाओं में धर्म का बंध हो जाए, जिसने यह कला जान ली उसकी हर क्रिया पुण्य में बदल जाएगी। बोलने, सोने, खाने, पीने के समय में अपने आचरण पर ध्यान देना चाहिए। परमात्मा ने कहा है कि गृहस्थ जीवन में अनेकों पाप होते रहते हैं लेकिन इसमें अगर धर्म आता है तो वह क्रिया धर्म की हो जाएगी। हर किया के पीछे परमात्मा ने बताया है कि ऐसा करेंगे तो आपके जीवन में पुण्य का आगमन होगा। मैं जो कर रहा हंू उसमें कोई बदलाव न करते हुए उसे परमात्मा ने जो धर्म दिया है उसका आलम्बन लेकर मैं वही क्रिया करते हुए धर्म का उपार्जन करूंगा। जिसके पास यह कला आ जाती है उसका जीवन २४ घंटे धर्ममय बन जाता है। धर्म की शरण से पापकार्य में पापानुबंध पुण्य हो जाएगा।
शुक्रवार को सुभाष खांटेड़ के 5 वर्षों में 32 मासखमण की तपस्या पूर्ण होने के उपलक्ष में स्थानकवासी समाज व चातुर्मास समिति द्वारा ‘तपोधनी’ उपाधि से अलंकृत किया जाएगा। 8 से 10 अक्टूबर को 72 घंटे का कर्मा शिविर, 16 अक्टूबर को आयंबिल ओली की शुरुआत और 19 अक्टूबर से प्रात: 8 से 10 बजे तक उत्तराध्ययन सूत्र का कार्यक्रम रहेगा।