कोयम्बत्तूर आर एस पुरम स्थित आराधना भवन में चातुर्मासिक प्रवचन की कड़ी में विमलशिष्य वीरेन्द्र मुनि ने जैन दिवाकर दरबार में धर्म सभा को संबोधित करते हुवे कहा कि सातवें व्रत में भगवान महावीर स्वामी फरमा रहे कि भोग- उपभोग में आते है।
जैसे खाना पिना आदि इसे भोग कहते है और जो वस्तुएँ बार बार उपयोग में आती है जैसे कपड़े गहने वगेरा को उपभोग कहते है। इसी प्रकार श्रावक को 26 बोल की मर्यादा करनी चाहिये जो वस्तुएँ उपयोग में आने वाली है। उसका परिमाण करले कि इन चीज वस्तुओ का इतने परिमाण (नगके रूप मे संख्या) निर्धारित करले और 15 कर्मादान जो कि श्रावक को जानने के योग्य है परन्तु आदरने के योग्य नही है।
15 कर्मादान में पाप कर्म ज्यादा है और जीव हिंसा का भी योग ज्यादा बनता है इसलिये इनका त्याग करना चाहिये जिससे जीव हिंसा से बच सके।
7 वे व्रत में 20 अतिचार दोष होते है उनमें 15 कर्मादान के व 5 भोजन संबंधी होते है। इनका विवेक रखना श्रावक को आवश्यक है। जिस प्रकार व्रत के पालन करने में विवेक से काम लेवे तो हम कर्मो के भार से हल्के हो सकते है।