श्री सुमतिवल्लभ नोर्थटाउन के श्री मूर्तिपूजक जैन संघ में आचार्य श्री देवेंद्रसागरसूरीश्वरजी ने पर्युषणा पर्व के अंतिम दिन धर्म प्रवचन देते हुए कहा की क्षमापना तो पर्वाधिराज के प्राणसमान हैं|
जिस तरह हज़ार कि.मी. रेल की पटरी से एक इँच पटरी भी यदि तुट जाये, तो ट्रेन लुढ़क जाती है उसी तरह मनमें एक जीवके प्रति भी यदि द्वेष का अंश रह गया, तो आपकी आराधनाकी पूरी ट्रेन ही लुढ़क जायेगी| जिस तरह कारमें आगे देखनेवाला अकस्मात से बच जाता है, ठीक उसी तरह भूतकाल को भूलकर जो व्यक्ति भविष्यमें आगे बढ़ना चाहता है, वह ही दुर्गतिओंसे बच सकता है| कॉंटे देखनेवालो को जिस तरह गुलाब की सुवास नहीं मिलती, ठीक उसी तरह अन्य की भूल को देखनेवाला कभी भी अन्य के प्रेम को प्राप्त नहीं कर सकता|वे आगे बोले कि जो नम्रतासे अपनी भूल की क्षमा याचना नहीं कर सकता, वह सुखे साग जैसा सख्त होने से मुर्दा समान है और जो अन्य की भूल पर क्षमा प्रदान नहीं कर सकता वह दुनिया का सबसे बड़ा कंजूस है, जो स्वयं के घरमें ही स्वयं की कब्र खोदता है ।
आपकी छोटी सी क्षमा भावना आपको आत्मिक सुख देने वाली होगी। संवत्सरी प्रतिक्रमण कर हाथ जोड़कर ‘मिच्छामि दुक्कडम्’ देना मात्र ही हमारा कर्तव्य नहीं है अपितु जीवन में अथवा पूरे वर्ष में जिस-जिस के साथ बैर-विरोध हुए हों, जिस-जिस को हमारे कारण कोई तकलीफ पहुंची हो, उन सभी से हम क्षमायाचना कर मैत्री स्थापना करें। व्यर्थ, अर्थहीन क्षमापना न करें। बार-बार अपराध कर बार-बार क्षमा मांगना कोई मूल्य नहीं रखता। गलतियों की पुनरावृत्ति न करें। अहिंसा की पहली और अंतिम शर्त क्षमा ही है। क्षमा, अपने को जीत लेने का उपाय है। क्षमापन पर्व, बेशक एक पंथ की खोज है लेकिन यह पर्व किसी एक पंथ का ना होकर सभी का है ।