चेन्नई. साहुकार पेठ स्थित राजेन्द्र भवन में आचार्य जयन्तसेनसूरि के शिष्य मुनि संयमरत्न विजय ने कहा कि अष्टकर्म के क्षय होते ही अष्टगुण प्राप्त होते हैं। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से अनंत ज्ञान गुण। दर्शनावरणीय कर्म के क्षय होते ही अनंत दर्शन गुण। वेदनीय कर्म के क्षय होते ही अव्याबाध गुण। मोहनीय कर्म के क्षय से चारित्र गुण।
आयुष्य कर्म के क्षय से अक्षय स्थिति गुण। नाम कर्म के क्षय से अरूपी निरंजन गुण। गौत्रकर्म के क्षय से अगुरुलघु गुण और वीर्यांतराय के क्षय से अनंत वीर्य गुण प्रकट होता है। सिद्ध पद प्राप्त करने के इच्छुक साधक जहाँ भी जाता है, घुलमिल कर रहता है। सबसे मैत्रीभाव रखता है, सरलता से जीवनयापन करता है।
जो जीव सीधा होता है, वही सिद्धशिला की ओर जाता है, टेढ़ा चलने वाला बीच रास्ते में ही भटक जाता। सीधा चलने वाला अपना घर यानि सिद्ध गति को प्राप्त हो जाता है। छोटा बालक जैसे माया से रहित होता है, वैसे ही सिद्ध पद के आराधक-साधक का जीवन भी सरल होता है। सिद्ध पद के आराधक के पास दुर्जन, दोषी दुराचारी, हिंसक जैसी प्रकृति के लोग आ भी जाए, तो भी वह उस पर दुर्भाव के भाव नहीं लाता है।
सिद्धपद का आराधक आहार के प्रति आसक्त नहीं रहता। आहार संज्ञा पर नियंत्रण पाने के लिए प्रारंभ में स्वाद रहित आयंबिल का तप है। जिनशासन में दूसरे पर्व वर्ष में एक बार आते हैं और नवपद की आराधना वर्ष में दो बार मौसम के परिवर्तन के समय आती है। जिससे तन-मन जीवन की शुद्धि हो जाती है।