महासती साध्वी धर्मलता जी ने धर्म सभा को संबोधित करते हुए कहा कि जिस प्रकार अंडे से मुर्गी और मुर्गी संडे की उत्पत्ति होती है ठीक उसी प्रकार मोह से मोह और तृष्णा से तृष्णा की है। मोहनिया कर्म राजा है शेष कर्म प्रजा, राजा को बस में करो प्रजा स्वतः बस में आ जायेगा मोह कर्म ही सबसे पहले आत्मा से अलग होता है।
परंतु जब तक इंसान मोह से जुड़ा हुआ है। तब तक चौदह वर्ष का ज्ञान भी क्यों न कर ले यह मोह उसे पुनः नीचे गिरा देगा। मर्यादा पुरुषोत्तम राम का लक्षमन के प्रति इतना मोह था कि लक्षमन की मृत्यु के पश्चात् भी छः महीने तक कंधे पर उठाकर घूमते रहे।
महासती जी ने कहा कि इंसान को चेतना से भी जड़ पदार्थो के प्रति मोह बढ़ता जा रहा है परंतु याद रखना बिछु और साँप का जहर तो उम्र रूपी वृक्ष को भले ही हिला दे किंतु मोह का जहर जन्मों जन्मों तक रुला देता है।मोह महान दुःख रूप जब मोह की बात निकलती है तब मानव खुश हो जाता है।
त्याग ,धर्म ,उपवास ,करूँ सेवा सहिष्णुता की बात की जय तो वह कोसो दूर हो जाता है आराधना करके भरत महाराज आरीसा के भवन में अरिहंत बन गए।मोह अर्थात मोक्ष का हरण करने वाला।
श्री सुप्रतिभाजी मा. सा. ने कहा क्रोधादि कषाय को नाश करने वाला जीव अरिहंत बन सकता है। क्रोध करने से पुण्य घटता है पाप बढ़ता है।
यह क्रोध हडियो का कैंसर है दूध जब ठंडा हो जाता है तो मलाई निकलती है।उसी प्रकार क्रोध कषाय जब ठंडा हो जाता है तब जीव को शांति मिलता है।