श्री सुमतिवल्लभ नोर्थटाउन श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ में आचार्य श्री देवेंद्रसागरसूरिजी ने प्रवचन के माध्यम से श्रद्धालुओं को संबोधित किया। उन्होंने कहा कि मनुष्य के सत्कार्य ही उसके जीवन की सफलता के सार होते है। मानव के चरित्र में अनेक विकृतियां स्वयंकृत अथवा समाज के प्रदूषण से उत्पन्न होती है। मानव यदि विकृतियों से बचा रहता है तभी वह सफलता एवं सुख का अनुभव कर पाएगा। व्यक्ति की किसी भी वस्तु के प्रति आसक्ति उस वस्तु को प्राप्त करने की लालसा उत्पन्न करती है और वह क्रियाशील हो जाता है। मनुष्य का आत्मसंयमित होना आवश्यक है अन्यथा उसे अनेक बुराइयां दबा लेंगी और वह असफलता के दलदल में धंस जाएगा।
यदि संयम के साथ क्रियाशील रहेगा तो आत्मविश्वास सबल रहेगा और उत्साह के साथ अपने कर्म में सफलता प्राप्त कर सकेगा। उत्साह जहां संयमशीलता से किए कर्म के साथ होता है वहीं इसके विपरीत उत्तेजना होती है। उत्तेजना में उत्साह जैसा जोश तो होता है, पर वह क्षणिक उद्वेग पर आधारित होता है। उत्साह सकारात्मक होने के कारण कार्य के प्रति आशा का संचार करता है, जबकि उत्तेजना पैदा होने पर नकारात्मक वृत्तियां बढ़ने लगती है और कार्य की असफलता की ओर बढ़त होने लगती है। उत्साह कार्मिक क्षमता का विकास होता है, जबकि नकारात्मक सोच क्रोध को जन्म देती है। हमारे मन एवं उसकी वृत्तियों का शरीर बुद्धि व आत्मा पर प्रभाव पड़ता है।
क्रोध का मूल है इच्छापूर्ति में अवरोध होना। जहां क्रोध आया वहीं विवेक नष्ट हुआ। विवेक मनुष्य की बुद्धि का वह श्रेष्ठतम भाग है जो नीर-क्षीर की पहचान करता है। मनुष्य के मन में जब अंतर्द्वन्द, तनाव एवं असंतोष का भाव जागृत होता है तो समझो क्रोध की स्थिति प्रारंभ हो गई है। क्रोध दूर होने पर जब होश आता है तब अपने कृत्य के लिए पश्चाताप के अलावा कुछ शेष नहीं रह जाता। क्रोध का जन्म ही हीनता की भावना होने पर होता है। अत: क्रोध से बचने के लिए उत्तेजना के क्षणिक आवेश में नहीं आना चाहिए। ईर्षा द्वेष, अहंकार, मोह, लोभ से बचना चाहिए। नैतिक मूल्यों का पालन करते हुए संयमित जीवन के साथ उत्साहपूर्वक कर्म करने में प्रवृत्त रहना चाहिए।