Sagevaani.com @चेन्नई. श्री सुमतिवल्लभ जैन संघ नोर्थटाउन बिन्नी में आचार्य श्री देवेंद्रसागरसूरिजी ने प्रवचन देते हुए कहा कि क्रोध अहंकार द्वारा उत्पन्न एक उपद्रवी मनोरोग है। यह हमेशा नुकसानदायक ही सिद्ध होता है। क्रोध का उद्देश्य सामने वाले को अपने रोष, विरोध या पराक्रम का परिचय देकर डराना होता है। भाव यह रहता है कि दबाव देकर उसे वह करने के लिए विवश किया जाए, जो चाहा गया है। किंतु देखा गया है कि यह उद्देश्य कदाचित ही कभी पूरा होता है।
क्रोध के समय जिस पर अपना रौद्र रूप प्रकट किया जाता है या जिन असंस्कृत शब्दों का उपयोग किया जाता है, उससे सामने वाले के स्वाभिमान को चोट पहुंचती है। इससे एक नयी समस्या खड़ी होती है। सामने वाला क्षुब्ध होता है और प्रतिशोध लेने व उसे नीचा दिखाने की बात सोचने लगता है। क्रोध किस कारण किया गया, इसे कोई नहीं देखता। आक्रोश का उन्माद एक प्रकार का आक्रमण है, जिसके कारण पक्ष सही होने पर, कारण का औचित्य रहने पर भी क्रोधी को अपराधी की पंक्ति में खड़ा होना पड़ता है। यह भी एक प्रकार की हिंसा है। न्याय पाने का अवसर चला जाता है। स्वभाव और व्यक्तित्व अनगढ़ होने की मान्यता यदि बनने लगे तो समझना चाहिए कि व्यक्ति की प्रामाणिकता चली गई।
ऐसे लोग न दूसरे की सहानुभूति पाते हैं और न किसी के सहयोग का लाभ ले पाते हैं। क्रोध से उनका शरीर जलता रहता है, मन उबलता रहता है, सो अलग। आचार्य श्री ने आगे कहा कि प्रतिकूलता को सहन न कर सकना, मतभेद को स्वीकार न करना, जो चाहा गया है वही हो, इस तरह का स्वभाव बना लेने पर क्रोध आने लगता है। क्रोधी को न केवल प्रतिशोध का प्रहार सहना पड़ता है, वरन उत्तेजना के उबाल में ढेरों रक्त जलाना पड़ता है। क्रोध अहंकारजनित है। और अहंकार का सबसे बड़ा उदाहरण लंका का राजा रावण है। उसकी परिणति क्या हुई, सब जानते हैं। वीरधीर राम उसके अहंकार का मर्दन करते हैं। क्रोध किसी भी कारण से आया हो, उसकी परिणति हानिकारक ही होती है। इससे जितना बचा जा सके, उतना ही अच्छा है।