ओंगुर, विल्लुपुरम (तमिलनाडु): कांचीपुरम जिले के कई गांवों, नगरों को पावन बनाने के बाद गुरुवार को जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, अहिंसा यात्रा प्रणेता, महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी के ज्योतिचरण तमिलनाडु के एक और नए जिले विल्लुपुरम का स्पर्श किया तो मानों विल्लुपुरम जिला महातपस्वी के चरणरज प्राप्त कर पावन हो उठा। इसके साथ ही अब तक कांचीपुरम में गतिमान अहिंसा यात्रा अपने प्रणेता संग विल्लुपुरम जिले में गतिमान हो गई। राष्ट्रीय संत आचार्यश्री महाश्रमणजी राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 45 पर लगभग ग्यारह किलोमीटर का विहार कर विल्लुपुरम जिले के ओंगुर गांव स्थित गवर्नमेंट हायर सेकेण्ड्री स्कूल के प्रांगण में पधारे।
इसके पूर्व आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी श्वेत सेना के साथ कांचीपुरम जिले में अवस्थित अचरापाकम गांव से प्रस्थान किया। आचार्यश्री कुछ सौ मीटर की दूरी के बाद राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 45 पर पधारे और अपने अगले गंतव्य की ओर गतिमान हुए। एक राष्ट्रीय राजमार्ग पर एक राष्ट्रसंत के ज्योतिचरण आगे से आगे बढ़ रहे थे तो ऐसा लग रहा था कि कोई धवल नदी अपनी धवल धारा के साथ राजमार्ग पर बहती चली जा रही हो। राजमार्ग के मध्य लगे फूलों के वृक्षों के की हरियाली और मार्ग के दोनों ओर हरे-भरे खेतों, तालाबों और वृक्षों का दृश्य नयनाभिराम बना हुआ था। आचार्यश्री कुछ किलोमीटर की दूरी पहुंचे कि कांचीपुरम जिले की सीमा समाप्त हो गई और और अब तमिलनाडु राज्य के विल्लुपुरम जिले की सीमा प्रारम्भ हो चुकी थी। इस प्रकार आचार्यश्री ने कांचीपुरम जिले की धरा को पावन बना एक नए जिले को पावन बनाने को अग्रसर हुए। कुल ग्यारह किलोमीटर का विहार कर आचार्यश्री विल्लुपुरम जिले के ओंगुर गांव में पधारे। यहां के शिक्षकों आदि ने आचार्यश्री का भावभीना स्वागत किया।
विद्यालय प्रांगण में आयोजित प्रवचन कार्यक्रम में आचार्यश्री ने उपस्थित श्रद्धालुओं को पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि आदमी के मन में विभिन्न विचार-भाव आ सकते हैं। जिस तरह चित्रपट्ट पर कुछ देर में ही भांति-भांति के चित्र आते रहते हैं, वैसे भी आदमी का मन एक चित्रपट्ट है, जिस पर हमेशा नए-नए चित्र उभरते रहते हैं। मनुष्य की भावधाराओं को समझने के लिए लेश्या का वर्णन मिलता है। छह प्रकार की लेश्याएं होती हैं। सारी लेश्याएं मनुष्य के भावों को बताने वाली होती हैं। जिनमें मन नहीं होता, उनमें भी लेश्याओं की विद्यमानता होती है। यह एक भावों का तारतम्य है। छह लेश्याएं क्रमशः एक के बाद एक अच्छी होती चली जाती हैं।
प्रथम तीन लेश्याएं अशुद्ध और बुरी होती हैं तो बाद की तीन लेश्याएं शुद्ध और अच्छी लेश्याएं होती हैं। आदमी की भावधारा की तरह ही लेश्याएं कभी शुद्ध तो कभी अशुद्ध होती रहती हैं। आदमी की जैसी भावना होती है, उसे वैसी सिद्धि प्राप्त हो जाती है। जिस प्रकार बिल्ली अपने मुंह से चूहे को भी दबोचती है और अपने बच्चे को भी दबोचती है, लेकिन उसके भावधाराओं में अंतर होता है। जिस प्रकार एक डाॅक्टर भी आदमी का पेट खोल देता है और एक डाकू भी आदमी का पेट खोल सकता है, लेकिन दोनों की भावधाराओं में अंतर होता है। एक जान बचाने के लिए पेट खोलता है और दूसरा जान से मारने के लिए पेट खोल देता है। बाहरी समानता के बावजूद भावधारा में अंतर होता है। आदमी को अपनी भावधारा को निर्मल बनाने का प्रयास करना चाहिए और शुभ लेश्या में रहने का प्रयास करना चाहिए।