Sagevaani.com @किलपाॅक श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ में विराजित योगनिष्ठ आचार्यश्री केशरसूरिश्वरजी के समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरिश्वरजी ने प्रवचन में कहा वैराग्य मानव भव में ही संभव है। वैराग्य उत्पन्न होने के लिए लघुकर्मी होना आवश्यक है। परिणाम उत्तम लाना है तो पुण्य से नहीं, खानदान से नहीं, आत्मकल्याण के हेतु से धर्म करना चाहिए। धर्म करने के लिए, धर्म की सामग्री पाने के लिए पुण्य गौण है और पुरुषार्थ मुख्य है, ऐसा नहीं है। उसके लिए हमें सब चाहिए। कई बार पुण्य इतने प्रबल होते हैं कि पुरुषार्थ करने की जरूरत भी नहीं आती। पुण्य अलग काम करता है, पुरुषार्थ अलग काम करता है लेकिन कई बार व्यक्ति का इनट्यूशन भी काम करता है। ज्ञानी कहते हैं पुण्य और पुरुषार्थ का संयोजन सम्यक ज्ञान है। उन्होंने कहा निकाचित पापों को तोड़ने का कार्य तप करता है।
शास्त्रों में तपस्या से कर्मों की निर्जरा करने का लिखा हुआ है। जो देह के स्तर पर मोह का विजेता बनता है, वह तपस्वी कहलाता है। उन्होंने बताया काउसग्ग तीन तरह से करते हैं स्थान से, मौन से और ध्यान से। काउसग्ग करने से मन- वचन- काया की आसानी से स्थिरता हो जाती है। उन्होंने बताया काउसग्ग करने से शरीर का आलस्य मिटता है। ज्ञानी कहते हैं धर्म से आलस्य जो शरीर में आ रहा है वह रुचि के अभाव के कारण आता है। अलसी को आराम भी थकान में बदल देता है। जहां पर रस होता है, भविष्य के पापों का डर होता हैं, वहीं धर्म में रुचि पैदा होती है।
हमने पाप हंस-हंसकर ही किए हैं। उन पापों को दूर करने के संकल्प लेने से प्रक्रिया शुरू हो जाती है। उन्होंने कहा प्रक्रिया बहुत महत्वपूर्ण चीज है। धर्म की रुचि पैदा हो तो आराधना किए बिना भी संस्कार बनाता है। जैन विज्ञान कहता है बालक गर्भ में आने के 48 मिनट के अंतर मुहूर्त में जीव का रूप ले लेता है। संस्कार गर्भावस्था में ही बनने शुरू हो जाते हैं। हम जानते हैं पुरुषार्थ के बिना भी कुछ नहीं मिलता है, तब धर्म कैसे मिलेगा? उन्होंने बताया कि तप की शक्ति देवों तक पहुंचती है क्योंकि तप से आत्मशक्ति बढ़ जाती है, वह देवशक्ति का आह्वान करती है।
आचार्य भगवंत ने कहा कभी भी संकल्प करते रहो लेकिन बुरे संकल्प करना मत और अच्छे संकल्प छोड़ना नहीं। संकल्प अपने आने वाले दुष्कर्म के नतीजों को बांधने का काम करता है। कर्म ग्रंथ में अबाधा काल बताया गया है। हम कर्म जब बांधते हैं, उनको उदय में आने के लिए वक्त लगता है, उस वक्त को अबाधा काल कहते है। यह अबाधा काल कर्म निर्जरा के लिए मिलता है। उन्होंने कहा हमको सबसे ज्यादा मोह है अपनी काया से, इसलिए कर्म निर्जरा का मार्ग बताया गया है तप। मन की समता के परिणाम बहुत महत्वपूर्ण होते हैं।
ज्ञानी कहते हैं कषायों के साथ कितनी भी अच्छी आराधना कर लो, फल नहीं मिलेगा। आराधना समता से, स्वभाव से करो। उन्होंने कहा अनुकंपा, समाधि व सेवा में द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, संप्रदाय आदि नहीं देखना चाहिए। उन्होंने कहा कामराग वाला उतना दुःखी नहीं बनता, जितना स्नेह राग वाला बनता है, उससे भी ज्यादा दृष्टि राग वाला दुःखी बनता है। नेमीनाथ परमात्मा के कल्याणक पर अट्ठम तप की आराधना करने की प्रेरणा देते हुए उन्होंने बताया अपने निर्वाणकाल में 22 तीर्थंकरों ने मासक्षमण किया, हमें उनसे प्रार्थना करनी चाहिए कि हे प्रभु! आपने निर्वाणकाल में मासक्षमण तप किया, मेरी छद्मस्थ अवस्था में अट्ठम तप तो करा दो।