कोण्डीतोप समता भवन में विराजित जयधुरंधर मुनि ने कहा मनुष्य को बोलने से पहले हर शब्द को एक बार तोल लेना चाहिए।जो तोलमोल कर बोलता है वह कभी अपशब्दों का कटु वचनों का प्रयोग नहीं करता क्योंकि वह जानता है कि वचन बड़े ही अनमोल होते हैं।
बुद्धिमान वही होता है जो बोलने से पहले सोचता है और जो बिना सोचे मनचाहा बोलता है उसे अनचाहा सुनना भी पड़ता है। शरीर से निकले हुए प्राण, कमान से निकला हुआ तीर जिस तरह वापस लौट कर नहीं आते ,उसी प्रकार मुंह से उच्चारित वचन भी वापस नहीं आ सकते। इसलिए पहले सोचो फिर बोलो नहीं तो बाद में पछताना पड़ेगा।
मुक पशु न बोलने के कारण कष्ट झेलता हैं, जबकि मनुष्य इसलिए कष्ट पाता है कि वह बोलते समय विवेक नहीं रखता। वचनों पर नियंत्रण रखने हेतु मुनि ने श्रोताओं को बोध देते हुए समझाया कि 18 पापों में से 6 पाप वाणी से से संबंध रखते हैं। कलह इत्यादि का मूल कारण कड़वे वचन होते हैं जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण महाभारत है। इंसान खाने में तो मीठा पसंद करता है लेकिन बोलता कड़वा है यह सबसे बड़ी विसंगति है।
शब्दों के दांत नहीं होते लेकिन दर्द काटने से भी ज्यादा पैदा करते हैं। व्यक्ति की पहचान वाणी से होती है। वीणा की तारों की तरह वाणी का संतुलन होना जरूरी है। लाठी पत्थरों से तो हड्डीयाॅ ही टूटती है लेकिन शब्दों से तो संबंध ही टूट जाते हैं। श्रावक के वचन व्यवहार में कहा जाता है कि उसे थोड़ा बोलना चाहिए मौन रखने में ही भलाई है।
मौन रखने से ऊर्जा कम खर्च होती है और वचन सिद्ध रूपी लब्धि भी प्राप्त हो सकती है। जय कलश मुनि ने गीतिका प्रस्तुत की। मुनिवृंद यहां विराजेंगे। धर्म सभा का संचालन संघ मंत्री सुरेंद्र कोठारी ने किया।