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कर्म के साथ पुरुषार्थ हो तो कहीं भटकने की जरूरत नहीं- मुनि हितेंद्र ऋषि

कर्म के साथ पुरुषार्थ हो तो कहीं भटकने की जरूरत नहीं- मुनि हितेंद्र ऋषि

एएमकेएम में उत्तराध्ययन सूत्र का स्वाध्याय

एएमकेएम जैन मेमोरियल सेंटर में चातुर्मासार्थ विराजित श्रमण संघीय युवाचार्य महेंद्र ऋषिजी के शिष्य मुनि हितेंद्र ऋषिजी ने शुक्रवार को उत्तराध्ययन सूत्र की विवेचना करते हुए बताया कि प्रभु महावीर ने अपने प्रधान शिष्य गौतम अणगार से कहा कि तुम देव शर्मा को प्रतिबोध देकर आओ। उन्होंने कहा गौतमस्वामी का विनय कैसा था। जहां विनय नहीं, वहां सब कुछ जीरो है। आपमें बाकी सब कुछ है, विनय नहीं है तो सब कुछ जीरो है। जिसके अंदर विनय है, वही कर्मों की निर्जरा कर सकता है। गौतमस्वामी चार ज्ञान के धनी थे। वे जानते थे, प्रभु मुझे क्यों भेज रहे हैं।

लेकिन प्रभु ने कहा और वे तुरंत उठकर गए। गौतमस्वामी ने देव शर्मा को प्रतिबोधित किया कि उसे संयम ले लेना चाहिए लेकिन देव शर्मा समझने को तैयार नहीं। अंत में गौतमस्वामी वहां से निकले। गौतमस्वामी के पीछे देव शर्मा चल रहा था। उसका मस्तक दरवाजे से टकरा गया और उसकी मृत्यु हो गई। उसका अपनी पत्नी से बहुत प्रेम था। गौतमस्वामी ने अपने ज्ञान से देखा, देव शर्मा मरकर पत्नी के सिर पर जूं के रूप में उत्पन्न हुआ। वह मोह था, जिसके कारण वह जूं के रूप में उत्पन्न हुआ। उन्होंने कहा जिन्होंने कर्मों को बांधा हुआ है, वह संसार में भटकता रहता है।

उन्होंने कर्म प्रकृति अध्ययन के तहत आठ कर्मों का विश्लेषण करते हुए कहा कि जो विशेष गुणों से आच्छादित करके रखे, वह ज्ञानावरणीय कर्म है। जो सामान्य गुणों से आच्छादित है, वह दर्शनावरणीय कर्म है। जिससे वेदना उत्पन्न हो, वह वेदनीय कर्म और जिसमें मोह बढ़ता जाए, वह मोहनीय कर्म है। जो आयुष्य के कारण है, वह आयुष्य कर्म और जो भी शरीर की इंद्रियां आदि है, वह गौत्र कर्म है। इस कर्म प्रकृति के अध्ययन में ज्ञानावरणीय कर्म के विभिन्न भेद और उनकी स्थिति बताई गई हैं।

उन्होंने कहा जैन धर्म पूरी तरह कर्म पर आधारित है। कर्मों को ही सर्वोपरि स्थान दिया गया है। कर्म है तो सब कुछ है। कर्म ही मनुष्य को गरीब, धनवान इत्यादि बनाता है। सब कुछ कर्म पर ही आश्रित है। लेकिन हम सब कर्म को भूल गए हैं। कर्म के साथ पुरुषार्थ हो जाए तो आपकी स्थिति अच्छी बन सकती है। फिर किसी ज्योतिषी या तांत्रिक की आवश्यकता नहीं। प्रभु महावीर भी अपनी आयुष्य बढ़ा सकते थे। लेकिन प्रभु कहते हैं मेरे कर्म मुझे ही निर्धारित करने है। कर्मनिर्जरा के लिए वे अनार्य देश में चले गए।

उन्होंने लेश्याध्ययन की विवेचना में बताया कि लेश्या यानी दर्पण। जिसमें आप अपनेआप को निहार सकते हो। छः लेश्याओं की प्रवृत्ति हमारे अंदर भी है। पहली तीन लेश्या अप्रशस्त यानी खराब है। बाकी तीन शुभ लेश्या है। इस अध्ययन में पूरी लेश्या का वर्णन किया गया है। लेश्या के लक्षणों से हम पा सकते हैं कि हम कौनसी लेश्या में है। लेश्या मन के परिणामों के अनुसार बदलती रहती है।

जो मनुष्य क्रूर और हिंसा के भाव से भरा है, अपनी इंद्रियों से जीतने वाला नहीं है, वह कृष्ण लेश्या वाला है। जो विषय आसक्त, प्रमादी है, जो सुख की तलाश में भटकता है, वह व्यक्ति नील लेश्या वाला है। अंतिम समय में जैसी लेश्या रहेगी, वैसा ही अगला भव मिलेगा। जो व्यक्ति वक्र है, दोषों को छिपाता है, वह कापोत लेश्या वाला है। तेजोलेश्या वाला वह है, जो नम्र, विनयी है। जिसके अंदर क्रोध, मान, माया, लोभ अल्प हो गए हैं, मितभाषी है, जो आत्मा का दमन करता हो, वह पद्मलेश्या वाला है।‌ जो आर्तध्यान, रौद्रध्यान छोड़कर प्रसन्नचित्त है, शांत हैं, वह शुक्ललेश्या वाला है। आइना हमारे सामने हमें दे दिया गया है। अब हमें क्या ग्रहण करना है, क्या छोड़ना है, वह हमारे पर निर्भर है। जो अशुभ लेश्या है, उसे छोड़ना है।

उन्होंने अणगार अध्ययन के बारे में बताया कि अणगार अपने मोक्ष मार्ग में तीव्र गति से कैसे करे, इसका वर्णन है।

जो जीव-अजीव को समझता है, वह समझ जाता है कि शरीर नश्वर है। उत्तराध्ययन सूत्र हमें यही संदेश देता है कि हम हमारी आत्मा को समझें।

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