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कर्म आवरण हटते ही आत्मा निर्मल बनेगी: पुज्य जयतिलक जी म सा

कर्म आवरण हटते ही आत्मा निर्मल बनेगी: पुज्य जयतिलक जी म सा

रायपुरम जैन भवन में विराजित पुज्य जयतिलक जी म सा ने बताया कि करुणा के सागर महावीर ने भव्य जीवों पर महती कृपा कर भवसागर से तिरने जिनवाणी रूपी गंगा प्रवाहित की। अनादि काल से यह आत्मा मोह में तल्लीन है इस मोह निन्द्ररा को जागृत करने भगवान ने जिनवाणी का पान कराया। जब आत्मा जागृत होगी तब ही धर्म कर्म को समझ कर पाप पुण्य को हेय ज्ञेय जानकर जिनवाणी को आत्मा में धारण कर लेता है तो भवसागर से तिरने योग्य बन जाती है! जैसे जैसे कर्म आवरण हटते ही आत्मा निर्मल बनेगी और भव सागर से तिरने योग्य बन जाएगी! यह जिनवाणी अनाबंध रूप को गतिमान होकर भव्य जीवों का कल्याण करने वाली है!

प्रसंग दो मित्रो का चल रहा था। मित्रता तारने वाली होनी चाहिए धर्म मित्र होना चाहिए। धर्म से जीव को जोड़ने में पुरुषार्थ करना पड़ता है। जैसे गेहूं की सीधी रोटी नहीं बनती है उसे प्रक्रिया करनी पड़ती है अर्थात आटा पीसने के बाद गुंथना, बेलना, सेकना पड़ता है तब कहीं रोटी बनती है। वैसे ही किसी को धर्म से जोड़ना है तो मेहनत करनी पड़ती है। तो यहाँ तक सामायिक करनी है तो पहले उसकी प्रक्रिया सीखनी पड़ती है। 12 व्रतों में नवमां सामायिक व्रत भगवान ने बताया ! सामायिक में तीन चीजो का अभ्यास होता है। जीवों को दया पालना सीखता है! सामायिक के 48 मिनट में जो पुरुषार्थ किया जाता है धर्म आचरण किया जाता है! तब ही सामायिक होती है! सामायिक वृत धारण करना भी सामायिक नहीं किंतु आत्मा से धर्म का आचरण करना ही सामायिक है।

सामायिक ग्रहण करने के पश्चात सावध योग का मन वचन काया से त्याग करोगे तब ही धर्म की शुरुआत होती है। धर्म में रूचि जागृत करने के लिए भी पुरुषार्थ करना पड़ता है! जैसे बुखार के रोगी को मीठी चीज भी खारी लगती है वैसे ही जीभ के स्वाद को सुधारना मुनक्का दाख, नमक आदि से जीभ का परिशोधन करने के पश्चात भोजन का स्वाद आता है वैसे ही आत्मा पर लगे मैल को साफ करने पश्चात ही धर्म का स्वाद आत्मा को लगता है। वह वैध भी अपने मित्र को आस्वाधन के लिए कोढ़ का रोग उत्पन कर दिया ! जैसे माँ हितबद्धि से संतान को ताड़ना देती है वैसे ही वह देव मित्र को प्रतिबोध देने के लिए उसे रोग से दुःखित करता है।

जब तक मोह का आवरण नहीं हटेगा। संसार के स्वरूप को नहीं जानेगा तब तक वह मुक्त नहीं हो सकता। यहाँ तक एक पक्षी भी जाल में फँस जाता है तो छूटने का प्रयास करता है तो आप तो मनुष्य है इस कर्म रूपी जाल से छुटने का प्रयास क्यों नहीं करते।

उस देव रुपी वैध ने वह रोग मिश्रीत दुध का कटोरा कोई पीयेगा तभी मैं रोग का इलाज करूंगा ! यतना पूर्वक उस मित्र को सोने की थाली में खड़ा कर औषधि युक्त दूध की धारा बहाई, जिससे उसकी काया कंचन वर्नी हो गई! रोग मुक्त हो गई। थाली का दूध प्याले में भर दिया जिसमें कीड़े मकोड़े आदि से युक्त था। माँ को आवाज लगाई और बेटे से मां को कहां यह दूध आप पी लो जिससे मेरी प्राण रक्षा हो जायेगी।

जब मोह कर्म का उदय रहता है तो माँ भी संतान की रक्षा नहीं करती है। अब पत्नी को आवाज दी और वह दूध का प्याला सामने कर दिया! पत्नी ने भी इन्कार कर दिया। अब पिता के सामने त्याला कर दिया पिता ने भी बहाना कर मना कर दिया इतने में मित्रों को खबर मिली तो दौडे आए। मित्रो के सामने भी वहीं प्याला पीने को कहा लेकिन मित्र भाग खडे हुए! अब वह वैध कहने लगा जल्दी कर मुझे आगे भी बना जाना है। अब वह मित्र अनुनय विनय करने लगा मैं मरना नहीं चाहता हूं मुझे बचा लो! देव मित्र कहता है ठीक है एक शर्त पर यदि तुम दीक्षा ले लो तो यह दुध मै पी लूंगा! अब उस मित्र को संसार का भान हो गया और दीक्षा लेने को तत्पर हो गया! संयम का उत्कृष्ट पालन करते हुए आत्म का कल्याण कर लिया। अपनी आत्मा का भावित करते हुए कल्याण कर लिया

आप भी इस मोह से जाल से मुक्त होवे। संसार के स्वरुप को जान कर इसे त्यागने का प्रयास करें और अपनी आत्मा का कल्याण करें। मंत्री नरेंद्र मरलेचा ने धर्म सभा का संचालन किया।

यह जानकारी ज्ञानचंद कोठारी ने दी।

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