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कर्मबंध में अध्यवसायों की भूमिका

*क्रमांक — 466*

 

. *कर्म-दर्शन*

 

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*🔹कर्मबंध में अध्यवसायों की भूमिका*

 

*👉 अध्यवसाय अत्यन्त सूक्ष्म एवं आंतरिक होते हैं। हम इन्हें चेतना की प्रारंभिक हलचल की पर्याय कह सकते हैं। जबकि योग चेतना की स्थूल हलचल है। अध्यवसाय का अर्थ ही है- सूक्ष्म चैतन्य का स्पन्दन। कषाय या अतिसूक्ष्म शरीर में केवल स्पन्दन और तरंगें होती हैं, भाव नहीं। चेतना एवं कषाय के स्पन्दन एवं तरंगें जब बाहर आते हैं तब वे तरंगें अध्यवसाय तक पहुँचती हैं। अध्यवसाय को अतिसूक्ष्म इसलिए कहा गया है क्योंकि शरीर में उसका कोई केन्द्र विशेष नहीं है।*

 

*अध्यवसाय इतने सूक्ष्म होते हैं कि इनमें क्रोध की तरंगें तो होती हैं लेकिन क्रोध का भाव नहीं होता है। जब ये तरंगें सघन होकर भाव का रूप ले लेती हैं तब वे लेश्या बन जाती हैं। इस प्रकार वह शक्ति, ऊर्जा- पदार्थ में बदल जाती है। तरंग का सघन रूप भाव और भाव का सघन रूप क्रिया है। जब-जब भाव सघन होते हैं तब-तब क्रिया बन कर स्थूल शरीर में प्रकट होते हैं और हमें दृष्टिगोचर होने लग जाते हैं। अर्थात् हम क्रोध की क्रिया, उसके लक्षणों को जीव में देख पाते हैं। शुद्ध अध्यवसाय शुद्ध भावों का निर्माण करते हैं। शुद्ध भाव जीव के विचारों को शुद्ध बनाते हैं, जिससे मन, वचन और काययोग शुद्ध बनते हैं। जो जीव के शुभ और अशुभ कर्मबंधन के हेतु बनते हैं। अध्यवसायों के शुद्ध और अशुद्ध होने के पीछे क्रमशः दो कारण हैं – कषायों की मंदता और कषायों की तीव्रता।*

 

*क्रमशः ……….. आगे की पोस्ट से जानने का प्रयास करेंगे कर्मबंध में अध्यवसायों की भूमिका के बारे में।*

 

*✒️लिखने में कुछ गलती हुई हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं। विकास सेठिया।

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