चेन्नई. किलपॉक में विराजित आचार्य तीर्थभद्र सूरीश्वर ने कहा पर्यूषण एक ऐसा पर्व है जो कर्मों की निर्जरा ही नहीं करता कर्म के मर्म का नाश भी करता है। कर्मबंध के मुख्य कारण राग और द्वेष हैं। जब तक राग-द्वेष को दूर नहीं करेंगे तब तक दूसरे कर्म उजागर होते रहेंगे। इन कषायों का क्षय करने का उत्तम उपाय है अ_म तप, चैत्य परिपाठी व साधर्मिकवात्सल्य। अ_म तप से शरीर का राग टूटता है।
चैत्य परिपाठी से अप्रशस्त राग प्रशस्त हो जाएगा। संसार का राग अप्रशस्त है, वही राग परमात्मा से जुड़ जाएगा तो प्रशस्त हो जाएगा। यह अमारि प्रवर्तन व क्षमापना द्वेष को भी तोड़ देगा। द्वेष की गांठ को मिटाना अत्यंत दुष्कर है। यदि इसे खत्म नहीं किया गया तो एक भव नहीं अपितु कई भव तक परम्परागत चलती रहेगी। किसी के साथ अविनय हो गया हो तो तुरन्त क्षमापना कर लेनी चाहिए।
इसके लिए 15 दिन में पाक्षिक, चार महिने में चातुर्मासिक या बारह महीने में सांवत्सरिक प्रतिक्रमण कर दोषों का क्षय कर लेना चाहिए। अन्यथा अनन्तानुबंधी हो गया तो नरक के सिवाय कोई गति नहीं मिल पाएगी। कभी कभार क्रोध आ जाए तो वह दोष है, रोग नहीं, लेकिन उस रोग का समाधान होना जरूरी है, नहीं तो वह दुर्गति में ले जाएगा, इसलिए क्षमापना श्रेष्ठ है।
कषायों का पश्चाताप कर क्षमा भाव पैदा हो जाए, तब आप सही अर्थ में धर्म को समझ सके हो। यदि क्षमा की परिणति नहीं है, तो वास्तव में धर्म को नहीं समझ पाए हो। उन्होंने कहा जो अपने दोष की क्षमा मांग ले, वह आराधक है और यदि क्षमा मांगने की तैयारी नहीं है, तो वह विराधक है।
मेरी भूल हो सकती है, ये शब्द मुख से निकल जाए तो समझ लेना आपकी साधना के द्वार खुलने की तैयारी है। मेरी भूल नहीं है निकला तो समझो साधना के द्वार बंद है। हृदय से पश्चाताप कर बिना प्रतिक्रिया की क्रिया की तो दोष दूर हो जाएंगे।