रायपुरम जैन भवन में विराजित पुज्य जयतिलक जी मरासा ने फरमाया कि करुणा के सागर भगवान महावीर ने सागर से तिरने का उपदेश दिया और जिणवानी रूपी गंगा प्रवाहित कई! श्रीपाल चरित्र का विवेचन :-तप वही कर सकता है जिसका मनोबल दृढ हो। छोटी मोटी बाधा तो आती ही है किंतु जिसका लक्ष्य द्रढ हो वह आग बढ़ता जाता है! श्रीपाल जी और मैनासुन्दरी ने मुनिराज की वाणी पर द्र्ढ श्रद्धा रखकर उसे आचरण में लाया तो उनके सारे रोग दूर हो गये। ا
कमलप्रभा ने बहु का बहुत उपकार माना ! उपकारी का उपकार न मानना कर्मबंध है! यहाँ तक तिर्यंच भी अपन उपकारी को नहीं भूलता है! तो हम तो मनुष्य है! कमलप्रभा ने सारी बिती बात रूपसुंदरी को बताई। रुपसुंदरी भी अपने निरोगी, उतम जंवाई को पाकर प्रसन्न हुई! पुण्यवान गुणवान ऐसा जंवाई महाभाग्य से मिला है जो चिंतामणि के समान है।
चिन्तामणी रत्न जो सब बाधाओं को दूर करने में समर्थ है! ऐसे ही मेरे जंवाई राज है ! जो स्वर्ण सुन्दर है। रूपसुन्दरी ने जिज्ञासा वश कमलप्रभा से पूछा यह चमत्कार कैसे हुआ सारी बात मुझे बताओ। कमलप्रभा ने भी पूरी बात बता दी और अपने पुत्रवधु एवं नवपद को धन्य धन्य कहा ! सारी बात जानकर अपने भाई पुण्यपाल को बता कर अपने भानजी जंवाई को सम्मान बघा कर घर ले आए। स्वर्गलोक जैसा सुख भोग रहे है श्रीपाल जी उसी समय मैनासुन्दरी के पिता की नजर मैनासुंदरी और श्रीपाल जी पर पड़ी तो आर्तध्यान करने लगे इस पुत्री ने तो मेरे उज्जवल वंश पर दाग लगा दिया!
उसी समय पुण्यपाल आकर सारी बात बताई और नरेश का क्रोध शांत हुआ, और पुत्री प्रेम उमड़ आया और अपने अपराध की क्षमायाचना की ! तुम्हारा कर्म प्रबल है पुण्य पाप पर पर विश्वास जमा ! अपने अहंकार को त्याग दिया। जैन धर्म की महिमा गाई और अंगीकार किया। दिया। और जैब
पहुंपाल राजा, अपनी पत्नी, पुत्री जमाई, कमलप्रभा माता को मनुहार कर सम्मान बधाकर महलों में ले आये और महोत्सव मनाया। श्रीपाल जी का लाड लड़ाते है! आनन्द ही आनन्द है ।